वन अधिकार अधिनियम की ज़मीनी हकीकत
किसी कवि ने अपने शब्दों में कितना सुंदर झारखण्ड का चित्र उकेरा है। सम्पूर्ण छोटा नागपुर एक लम्बा लहरदार-घुमावदार पहाड़ की तरह है…, इसके केंद्र में पठार है…, यह पूरा इलाका कमोवेश घने जंगलों से पटा है…, जब निचले और लहरदार ढलान में असंख्य पेड़ बढ़ते हैं तो इलाकों में मीलों तक फ़ैल जाते हैं.., यह सब मिलकर एक दिलकश अकल्पनीय दृश्य की श्रृंखला बनाते हैं…। यह कोई अपवाद नहीं बल्कि जिसने भी झारखण्ड और झारखंडियों को लिखा वे यहाँ के प्रकृति और संस्कृति के अस्तित्व को नकार ही न सके।
अंग्रेजी हुकूमत के बाद स्वतंत्र भारत में झारखण्ड में बहुत बदलाव हुआ और यह अभिभुतीय परिदृश्य अब बहुत कम बचा है। साथ ही अंतर्विरोध के भवर में गोते खा रहा। ख़त्म हो रहे जंगल की वजह से झारखंड आज अपने शाब्दिक अर्थ जंगल झाड़ का खंड (जमीन) को खुद ही तलाशने को मजबूर है। सरजोमडीह गाँव ने अपना अस्तित्व ही को दिया है, गाँव में अब एक भी साल का पेड़ नहीं बचा। रांची शहर में स्थित पहाड़ ‘रिचिबुरु’ –अर्थ बाजों वाला पहाड़ –शिव भक्तों ने पहाड़ के ऊपर मंदिर बना बाजों को खदेड़ दिया, अब कोई बाज सीता को बाचाने नहीं बचा।मुंडाओं की परंपरा है जिसमे एक गाँव से दुसरे गाँव जाते समय महिलाएं आगे चलती है –पीछे की मान्यता है कि पुरुष बाघ से डरते हैं जबकि बाघ महिलाओं से। बेतला टाइगर पार्क में अब बाघ तो नहीं बचे परन्तु परंपरा बची हुई है। झारखण्ड के सम्मान के लिए इसे आदिवासी राज्य कहा जाता है परन्तु वे भी मात्र 26% ही शेष हैं। यह दर्शाता है कि विगत वर्षों में जंगल और आदिवासियों के साथ कितना क्रूर बर्ताव हुआ।
देश के आज़ाद होते ही जंगल पर वन निवासियों के अधिकार पर अंतिम किल गाड़ते हुए इसे वन विभाग के हवाले कर दिया गया। वन विभाग ने इन वन निवासियों को ही जंगल के बर्बादी का अपराधी माना और स्वयं उद्योग के लिए जरूरी टिम्बरों को काटने का अतिरिक्त कार्य पूरा करते रहा। आज यहाँ के बुजुर्ग उस दर्दनाक घटना को याद कर कहते है हमने ठेकेदारों की मजदूरी के लिए हमने अपने ही पेड़ों को काटा। अब पेड़ भी ख़त्म मजदूरी भी ख़त्म…।फिर वन विभाग ने वन संरक्षण अधिनियम 1980 से लेस हो आदिवासियों को ही अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया और शुरू किया आतंक का खेल – क्या-क्या न हुआ हत्या, लूट, घरों को तोडना/आग लगाना, बलात्कार आदि। यह सिलसिला ने ‘साल बनाम सागवान’, ‘चिपको आन्दोलन”, “अप्पिको आन्दोलन” जैसे आन्दोलनों को जन्म दिया। सेटेलाईट कि तस्वीरों ने देश के उपलब्ध जंगलों का कच्चा चिट्ठा जनता के समक्ष खोल कर रख दिया।
संयुक्त राष्ट्र प्रबंधन की असफलता के बाद अनुसूचित जनजाति और परम्परागत वननिवासी अधिनियम 2006 सांसद में पारित हुआ, ग्रामीणों को उन जंगलों के उपयोग एवं निवास के अधिकार को मान्यता मिली। जबकि कानून के लागू होने के बाद से ही अधिकांश नौकरशाह, कॉर्पोरेट, खनन लॉबी और राजनैतिक पार्टियों के बहुसंख्यक नेता इसे विकास के रास्ते रोड़ा मानते हैं। इस कानून ( अधिनियम ) को समाप्त या संशोधन के नाम पर कई मुकदमा लंबित है एवं सिलसिला जारी भी है।
अब मौजूदा सरकार ने जंगलों के संरक्षण, पुनर्स्थापना एवं प्रबंधन के निर्धारित किये गए 42 हजार करोड़ ग्रामसभा को ना देकर इसके जगह कंपा बिल संसद में पारित कर दिया है। अब इन पैसों को राज्य सरकारों को दे दिया जाएगा जिसे वन विभाग खर्च करेगी। जबकि वन अधिनियम 2006 के अनुसार यह पैसा ग्रामसभाओं को दिया जाना चाहिए। वन अधिकार क़ानून के बावजूद आदिवासियों के निवास स्थान को छोटा कर वनभूमि का हस्तांतरण लगातार करना आदिवासियों को जंगल से बाहर फेकने का गुप्त अजेंडा नहीं है तो और क्या है?