पिछले वर्ष झारखण्ड के सिमडेगा जिले में 11 साल की बच्ची सन्तोषी कुमारी की मौत भूख से तड़प-तड़प कर हो गयी। उस परिवार का राशन कार्ड आधार कार्ड से लिंक न होने के कारण निरस्त कर दिया गया था जिसके वजह से उस परिवार को विगत जुलाई से ही राशन नहीं मिला पाया था। उसके परिवार वाले बताए थे कि उनकी बेटी ने पिछले आठ दिनों से कुछ नहीं खाया था, तो वहीं सन्तोषी की माँ कोयली देवी का कहना था कि “मेरी बेटी भात-भात कहते हुए मर गयी”। स्कूल बन्द होने की वजह से मिड-डे मील का विकल्प भी नहीं था। इस घटना के बाद एक-एक कर भूख से मौत की कई हृदयविदारक घटनाएं रघुवर सरकार के कार्यकाल में हुई और यह सिलसिला लगातार जारी है। अबतक कुल मिला कर इस राज्य में भूख से 13 मौतें हो चुकी है। जबकि यह सरकार लगातार कहती रही है कि यह मौते भूख से नहीं बल्कि बीमारी से हुई है। दुखद यह है कि यह सरकार इतनी निर्लज है कि इस दिशा में कोई सकारात्मक कार्य करने के बजाय सिर्फ खोखले दावे-वादों की डींग हाकने में ही लगी रही।
आज के युग में जब विज्ञान और तकनीक के कारण सूचना, संचार और परिवहन व्यवस्था ने इतनी तरक़्की कर ली है कि सभी नागरिक सेवाओं के अच्छे इन्तज़ाम शीघ्र किये जा सकते हैं, ऐसी स्थिति में भी यदि कोई व्यक्ति कई दिनों तक न खाने की वजह से मर जाता है तो यह इस व्यवस्था के रहनुमाओं के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात है। आप को बता दें कि झारखण्ड में रामगढ़ जिले से एक बार फिर भूख से मौत जैसी भयावह खबर सामने आयी है। नवाडीह प्रखंड के जरहिया टोला पंचायत के अंतर्गत 39 वर्षीय राजेंद्र बिरहोर (बिरहोर जनजाति विशेष जनजातियों में शामिल) की मौत 24 जुलाई को भूख से ही हो गई। उसकी पत्नी शांति देवी ने बताया कि उनके घर में पिछले तीन दिनों से खाना नहीं बना था। पीलिया बीमारी से ग्रसित राजेंद्र के पास दवा खरीदने को भी पैसे नहीं थे। ऐसी स्थिति में मेरे पति की भूख से तड़पते हुए जान चली गयी।
शांति देवी ने आगे बताया कि उसका पति कभी-कभी ट्रैक्टर चलाते थे तो घर चलता था। बीमारी के कारण उनका यह काम भी बंद हो गया था। इस विकट परिस्थिति में वह भीख मांगकर पति और छह बच्चों की भूख मिटा रही थी। उसके पति की बीमारी अधिक बढ़ जाने के बाद वह यह काम भी नहीं कर पायी। रोते हुए वह कहती है कि “दवाई तो दूर उनके घर में पिछले तीन दिनों से एक दाना आनाज नहीं था”। उनके पति एवं परिवार के पास आधार कार्ड के अलावा किसी भी प्रकार का राशन कार्ड या अन्य कोई कार्ड नहीं है। हालांकि, प्रशासन के तरफ से इस घटना का लीपा पोती अभी से ही शुरू हो गया है। घटनास्थल पर पहुंचे वहाँ के बीडीओ और सीओ ने बिना जाँच के ही इस मौत को भूख के बजाय बिमारी से हुई मौत बता दिया। यही नहीं मृतक का पोस्टमार्टम भी करवाना गवारा नहीं समझा। पारिवारिक लाभ के अंतर्गत उन्हें 10 हजार रुपए दिए और अन्य सुविधाओं का आश्वासन देकर पल्ला झाड चलते बने।
अक़सर यह बताया जाता है कि भुखमरी का कारण खाद्यान्न की कमी है – पर यह एक मिथक है। सच तो यह है कि विश्व में इतना भोजन का उत्पादन होता है कि सभी का पेट भरना सम्भव है। एक ओर सुपरमार्केट की अलमारियों में रंग-बिरंगे डिब्बों में खान-पान की सामग्री स्टॉक करके रखी हुई है तो वहीं दूसरी ओर विश्व-भर में रोज़ 1.6 करोड़ बच्चे और 3.3 करोड़ वयस्क भूखे सोते हैं। मुनाफ़े की होड़ के कारण भोजन की क़ीमतें मज़दूरों और गरीबों की पहुँच से दूर होती जा रही है। हालांकि मौजूदा सरकार के ‘विकास’ के कारण भारत में कृषि उत्पादन एक संकट के दौर में है और ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि से दूर होकर आज अप्रवासी श्रमिक के रूप में शहरों की तरफ़ अग्रसर हो रहा है जहाँ वह प्राय: अनौपचारिक क्षेत्र में मज़दूरी करता है। कृषि उत्पादों के भारी मात्रा में निर्यात और कृषि क्षेत्र में एफ़डीआई को बढ़ावा देने से मँझौले और छोटे किसान ख़ुद की जीविका साधने लायक भी पैदावार नहीं कर पाते। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में ऐसे कई किसान क़र्ज़ के बोझ तले आत्महत्या तक कर लेते हैं। ऐसी स्थितियाँ लोगों को लम्बे समय तक भुखमरी की अवधि में रहने के लिए मजबूर करती हैं।
बहारहाल, साफ़ नियत का दावा करने वाली यह सरकार भुखमरी के नए पैमाने खोजने में लगी है, और दूसरी ओर पोस्टमॉर्टेम कराने से भी साफ़ मना करती है। कब तक यह निर्लज रघुवर सरकार शुतुरमुर्ग की भांति सच से मुँह छुपाती रहेगी? और कितने मौतों के बाद ये निर्दयी सरकार जागेगी? झूठे आंकड़ों के माध्यम से खुद की पीठ थपथपाने वाली फोटोशोप सरकार की पीवीटीजी डाकिया योजना की विफलता की कहानी को यह घटना मुँह चिढ़ा रही है। यह घटना 275(1) के तहत मिलने वाले पैसे के बंदरबांट के तरफ भी इशारा करती दिखती है। इस जाति के लिए बकरी पालन प्रशिक्षण के नाम पर प्रति व्यक्ति 30-40 हजार खर्च दिखाने वाली सरकार उम्मीद करती है कि गरीबी से टूटे आदिम-भाई खुद ही बकरी खरीद लें। इसके बाबत कार्यकारी एजेंसी ने सभी के समक्ष गुहार लगाई थी कि सत्ताधारी पार्टी के नाम से एक वरिष्ठतम सरकारी अधिकारी ने पैसे की मांग की थी, और पैसे नहीं देने की स्थिति में काम में अड़चनें पैदा कर रही थी। उसी समय सरकार को इसे संज्ञान में लेते हुए जाँच करवाना चाहिए था, परन्तु सरकार ने इसे बंदर का घाव बना दिया है।