लैंड बैंक के क्या झारखंडियों के हित में नहीं?

 लैंड बैंक … 

क्या आप जानते हैं कि सरकार उद्योगपतियों को नदियाँ बेच रही है?

हां, झारखंड की सरकार ऐसा ही कर रही है।

खूंटी जिले के टोरा ब्लॉक में लोहजीमी गांव इसका एक उदाहरण है, जहां सरकार ने नदी की जमीन को चिन्हित किया और आंशिक रूप से अधिग्रहित भी किया | मामले का तथ्य यह है कि सरकार लोहजीमी गांव में ‘कोयल-कारो बांध‘ के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण कर रही है। इसके निर्माण से 132 गांवों की 30,000  एकड़ कृषि भूमि और 20,000 एकड़ वन भूमि के जलमग्न होने का खतरा रहेगा। इनके जद्द में आने वाले गांवों के आदिवासियों और मूलवासियों ने कई संगठनों के समर्थन के बलपर लगातार 30 वर्षों से अधिक समय तक संघर्ष किया और  आखिरकर सरकार को घुटने टेकने पड़े। ग्रामीणों पर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने गोलियां चलाई, आठ लोग शहीद हुए एवं बड़ी संख्या में पुरुष और महिलाएं जख्मी हुईं।

शायद सरकार ने इस विफलता का बदला लेने के लिए झारखण्ड में ‘लैंड बैंक’ की स्थापना की है। सरकार ने षड्यंत्र के तहत इसे कानूनी अमली जामा पहना कर झारखंडियों के समक्ष पेश की है जिसके अंतर्गत अब यहाँ की जनता ‘लैंड बैंक’ के नीतियों के विरोध में अब न्यायलय की शरण में भी नहीं जा सकेंगे। जो निंदनीय है I

बिरसा मुंडा के सपने झारखण्ड राज्य की बुनियाद हैं और यहां की राजनीति की धुरी भी

राज्य में सारंडा और बेतला को छोड़कर लगभग सभी जंगल गांव के भीतर हैं और सदियों से इन जंगलों पर ग्रामीणों का अधिकार रहा है। वनाधिकार क़ानून में इस परम्परागत अधिकार को क़ानूनी मान्यता देने की पहल रही है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 3,64,237 हेक्टेयर वन भूमि सामुदायिक दावेदारी के हिस्से में आती है। वन भूमि से बेदखल करने के लिए राज्य सरकार कैम्पा-प्रतिपूरण वनीकरण क़ानून के बहाने सघन स्तर पर वनरोपण का काम कर रही है। वन भूमि पर सालों से बसे आदिवासियों और परम्परागत समुदायों को सार्वजनिक भूमि अतिक्रमण के तहत उजाड़ा जा रहा है।

झारखण्ड में बिरसा मुंडा के उलगुलान के दौर-सी स्थिति बनी हुई है अंतर सिर्फ इतना है कि बिरसा उस समय अंग्रेज़ों से लड़ रहे थे और आज लोगों को वनाधिकार जैसे प्रगतिशील और सामुदायिक हितों की हिफाज़त करने वाले क़ानून के बाद भी अपने द्वारा ही चुनी गयी सरकार एवं कॉरपोरेट की  गठजोड़ से लड़ना पड़ रहा है

देश के सारे खनिज पदार्थों का तक़रीबन 40 फ़ीसदी अकेले झारखण्ड में मौजूद है। ज़मीन में दबे यही खनिज झारखण्ड में विवाद की मूल जड़ भी हैं। राज्य की लगभग दो तिहाई आबादी की जीविका खेत-खलिहानों से आती है, लेकिन ‘विकास’ का रास्ता खनिजों के दोहन और इस पर आधारित उद्योगों से निकलता है। जहाँ ‘बिरसा’ के सपनों में ‘समुदाय’ है वहीँ ‘विकास’ के पंख ‘कॉरपोरेट’ से जुड़े हैं।

एक तरफ इस साल फ़रवरी में हुए ‘मोमेंटम झारखण्ड समिट’ में 210 कम्पनियों के साथ 3,11,000 करोड़ के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुआ तो दूसरी तरफ अक्टूबर महीने में हुई ‘माइंस समिट’ में झारखण्ड सरकार ने संदेश दिया कि खदान, पानी, ज़मीन से जुड़ी बाधाएं ख़त्म की जाएंगी। इन कंपनियों को जमीन देने के लिए राज्य सरकार लैंड बैंक भी बनाकर रखी है। इसके लिए जियाडा का गठन किया गया है, जिसमें पूरे राज्य के हर जिले का लैंड बैंक बनाया गया है। मोमेंटम झारखंड में शामिल कंपनियों ने रांची के आसपास में जमीन के लिए आवेदन दिया है। इसके पहले मई महीने में सरकार ने 90 कंपनियों को उद्योग लगाने के लिए जमीन दी है। विभिन्न जिलों में  आयोजन करके कंपनियों को जमीन दी जा रही है I

राज्यभर के प्रत्येक जिले में लैंड बैंक शामिल की जाने वाली जमीन जिसकी गणना एकड़ में इस प्रकार हैं :-

 

जिला भूमि एकड़ मेंजिला भूमि एकड़ मेंजिला भूमि एकड़ में
बोकारो2003गुमला105214रामगढ़1489
देवघर27619जामताड़ा29863रांची29421
धनबाद15441खूंटी24922साहिबगंज22915
दुमका73901कोडरमा4054सरायकेला21358
जमशेदपुर23448लातेहार44769सिमडेगा114556
गढ़वा122535लोहरदगा17490प. सिंहभूम325740
गिरिडीह122535पाकुड़18380
गोड्डा18474पलामू2423

इस तरह पूरे राज्य में 1056137  एकड़ भूमि लैंड बैंक के नाम पर लिया है। उपायुक्तों को लक्ष्य दिया गया है कि वे अपने ज़िले में ज़्यादा से ज़्यादा वन भूमि, गैर-मजुरवा भूमि, गोचर भूमि, खेल के मैदान, भू-दान की ज़मीन, सैरात, सामुदायिक भूमि को अपने जि़ले के लैंड बैंक में शामिल करें। जबकि इन भूमि पर वर्षों से राज्य के गरीब किसान अपनी खेती करते आये हैं और अपनी आजीविका प्राप्त कर रहे हैं।  यह उस 10.56 लाख एकड़ जमीन का 81.21 प्रतिशत है, जिसे सरकार ने मोंमेटम झारखंड के तहत देशी-विदेशी कंपनियों को देने के लिए चिह्नित किया है़। वर्तमान में सरकार के लैंड बैंक में कुल 20.56 लाख एकड़ जमीन है़।

तोरपा अंचल के सर्वेक्षण में यह निकल कर आया कि सरकार ने वहां की 7,885.26 एकड़ गैर मजरुआ आम व गैर मजरुआ खास जमीन लैंड बैंक में शामिल कर लिया जा चूका है, जिसमें आम रास्ता, तालाब, चारागाह, कब्रगाह, नदी, पहाड़ आदि शामिल है़ं। इसके अतिरिक्त 4,523 एकड़ जंगल-झाड़ की जमीन को भी शामिल किया गया है़ जोकि असंवैधानिक है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार ग्राम सभा की जमीन ग्रामीणों के प्रयोग के लिए है़। यह वन अधिकार अधिनियम 2006 व  पेसा अधिनियम 1996 का भी उल्लंघन है़। इस विषय पर टीएसी की सलाह नहीं ली गयी और यह एक कार्यकारी आदेश (एक्जीक्यूटिव आर्डर) है़।

सरकार ने गैरमजरुआ खास जमीन की मालगुजारी काटना भी बंद कर दिया है़ इसके  लिए ग्रामीणों को कोई कानूनी सूचना नहीं दी गयी़। सरकार ने कस्टमरी लॉ के तहत परिभाषित जमीन को भी लैंड बैंक में शामिल किया है़। लैंडबैंक बनाने की प्रक्रिया भूमि अधिग्रहण से जुड़ी है़। यह जमीन अधिग्रहण पर प्रभावी केंद्रीय कानून का भी उल्लंघन है़।

छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908 और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट 1949 के प्रावधानों में संशोधन करने में विफल रहने के बाद भूमि अर्जन पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर (हर्ज़ाना) और पारदर्शिता का अधिकार 2013 में संशोधन विधेयक – 2017 को मंज़ूरी दी गई है। इस संशोधन के तहत भू-अर्जन के लिए सोशल इम्पैक्ट स्टडी कराने की बाध्यता नहीं है। सरकार का तर्क है कि गोवा, गुजरात, तमिलनाडु और तेलंगाना में एसआईए की बाध्यता को समाप्त करने के प्रस्ताव को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिली है। सोशल इम्पैक्ट स्टडी कराने की बाध्यता नहीं रहने से भू-अर्जन के लिए ग्राम सभा की अनुमति ज़रूरी नहीं होगी।

छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट 1908 और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट 1949 में माइनिंग और उद्योग लगाने के लिए आदिवासी ज़मीन के अधिग्रहण का अधिकार सरकार को पहले से उपलब्ध है। लेकिन इसके लिए ग्रामसभा की सहमति ज़रूरी है।

सोशल इम्पैक्ट स्टडी कराने की बाध्यता नहीं रहने से अब सरकार बिना ग्राम सभा की सहमति के स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, अस्पताल, पंचायत भवन, आंगनवाडी, रेल परियोजना, सिंचाई, विद्युतीकरण, जलापूर्ति, सड़क, पाइपलाइन, जल मार्ग, आवास आदि के लिए भी भूमि ले सकती है।

साफ़ दिख रहा है कि नीतियां, कानून सब कुछ इंडस्ट्री के हिसाब से बन रहे हैं।” सरकार चाहे जो राग अलाप ले, सच तो यह है कि बिरसा मुंडा के सपने और इंडस्ट्री के सपने एक नहीं हो सकते। बिरसा और इंडस्ट्री के सपने के इस अन्तर्विरोध को पाटने की सार्थक कोशिश विकास के नए आयाम की मांग करती है।

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