हेमन्त सरकार ने भाषा विवाद खत्म कर 2002 की तरह फिर से झारखण्ड जलाने की भाजपाई सोच को किया खंडित. उर्दू को सभी जिलों के क्षेत्रीय भाषाओं में जोड़ना हेमन्त सरकार का संवैधानिक दायित्व और संवैधानिक बाध्यता, क्योंकि यह संविधान में जोड़ी गयी भाषा है.
रांची : झारखण्ड राज्य एक बार फिर से जलने से बच गया. वर्ष 2002 जैसी हिंसात्मक संघर्ष फिर से दोहराने की भाजपाई मंशा हुई खंडित. मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन की झारखण्डी सोच ने यह कारनाम कर दिखाया. दरअसल इस बार राज्य जलने का कारण बन रहा था ‘भाषा विवाद’. यह भाषा विवाद राज्य के दो जिले धनबाद और बोकारो में बिहार से जुड़े क्षेत्रीय भाषा भोजपुरी और मगही को हटाने को लेकर उठा था. युवाओं की लगातार उठ रही मांग पर मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन विशेष नजर बनाए हुए थे. वे हर परिस्थिति का आकलन कर रहे थे.
अंततः उन्होंने फैसला लिया है कि वे पूर्व की भांति भाजपा सरकार द्वारा फिर एक बार झारखण्ड राज्य को जलने नहीं देंगे. एक कड़े फैसले के तहत सरकार के निर्देश पर कार्मिक विभाग ने एक अधिसूचना जारी कर इन दो जिलों से उपरोक्त भाषाओं को हटा दिया. इस तरह हेमन्त सरकार ने झारखण्डी युवाओं के हित में भाषा विवाद को खत्म करने का काम किया. दूसरी और प्रदेश की भाजपा नेताओं की सोच कि झारखण्ड ठीक उसी तरह जले, जिस तरह बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में जलाने का काम 2002 में किया गया था, मुख्यमंत्री के सूझ-बूझ से खंडित हुई.
बिहारी मूल के भाषा को क्षेत्रीय भाषा में जोड़े जाने पर युवा थे असहमत, सीएम हेमन्त का लिया फैसला झारखण्ड के हित में
भाषा विवाद के मद्देनजर आखिर झारखण्ड की राजनीति इतनी गरमायी क्यों? दरअसल हेमन्त सरकार द्वारा जिलास्तरीय थर्ड और फोर्थ ग्रेड नौकरियों के लिए जिला स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं की सूची बनायी गयी थी, जिसमें कुछ जिलों में भोजपुरी, मगही और अंगिका को शामिल किया गया था. इसमें बोकारो और धनबाद जिले प्रमुखता से शामिल थे. सरकार के इस फैसले से युवाओं ने असहमति जतायी.
युवाओं का कहना था कि इन भाषाओं का मूल बिहार है. इन्हें झारखण्ड की क्षेत्रीय भाषाओं में शामिल रखे जाने से झारखण्ड के आदिवासियों-मूलवासियों का हक मारा जायेगा. झारखण्ड की थर्ड और फोर्थ ग्रेड की नौकरियों में बहारी लोग ही काबिज हो जायेंगे. युवाओं के असहमति से सत्तारूढ़ झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के कई विधायक भी सहमत हुए. मामला मुख्यमंत्री के पास पहुंचा. झारखण्डी युवाओं के मांग को गंभीरता से लेते हुए, राज्य में शांति बनाए रखने हेतु मुख्यमंत्री द्वारा इन दोनों जिलों से उपरोक्त भाषाओं को हटाने की अनुमति दे दी गयी.
प्रदेश भाजपा ने किया राजनीति रोटी सेंकने का भरपूर प्रयास
हेमन्त सरकार द्वारा लिये गए उपरोक्त फैसले के बाद जहां झारखण्डियों के चेहरे पर खुशी है, वहीं, प्रदेश भाजपा नेताओं ने खुद को बिहारी हितैषी बताते हुए विरोध शुरू किया. भाजपा नेताओं ने विरोध का कारण हर जिलों में क्षेत्रीय भाषा के रूप में उर्दू जैसे संविधानिक भाषा को जोडा जाना बनाया. भाजपा का दलील था कि बोकारो और धनबाद से भोजपुरी और मगही को हटाकर और हर जिलों में उर्दू को जोड़ कर हेमन्त सरकार ने तुष्टिकरण करने का काम किया है.
दरअसल ऐसा बयानबाजी कर भाजपा नेता मामले को सांप्रदायिक रूप देते हुए अपने बाहरी वोट बैंक को बचाने की प्रयास करती दिखी. वह झारखण्ड को फिर से ठीक वैसे ही जलाना चाहती थी, जैसे 2002 में उनके सत्ता के दौरान झारखण्ड को राजनीतिक आग में जलाया गया था. बता दें कि 2002 में बाबूलाल मरांडी की सरकार के कार्यकाल में कार्मिक प्रशासनिक सुधार और राजभाषा विभाग ने स्थानीयता की परिभाषा तय की थी. इसके जारी होने के बाद राज्य में हिंसा की कई घटनाएं हुई थीं और सरकार के फ़ैसले पर कई गंभीर सवाल भी उठे थे.
पूरे प्रदेश में भाजपा ने ही लागू किया था भोजपुरी, ताकि झारखण्डी हितों का अतिक्रमण हो
भोजपुरी और मगही को हटाये जाने और उर्दू को जोड़े जाने को लेकर हेमन्त सरकार पर आरोप लगाने से पहले भाजपा को यह सच्चाई बतानी चाहिए कि झारखण्ड में भोजपुरी को किसने जोड़ा था. दरअसल, राज्य में भाषा विवाद के जड़ को रोपने जैसा कुकृत्य भाजपा नेताओं द्वारा ही हुआ था. भाजपा ने ही भोजपुरी को पूरे राज्य में लागू किया था, ताकि झारखण्डी हितों को पूरी तरह से अतिक्रमण किया जा सके. आज जब हेमन्त सरकार आदिवासी-मूलवासी के अधिकारियों के हितों में फैसले ले रही है, तो भाजपा नेता भाषा विवाद को जन्म दे इस महान परिवर्तन को रोकना चाहते है.
संवैधानिक दायित्व पालन करने की नीति को भाजपा तुष्टिकरण के रूप में देखती है
इसी तरह उर्दू भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा है. संविधान की इस भाषा को सभी जिलों में लागू करना हेमन्त सरकार का दायित्व भी है और संवैधानिक बाध्यता भी. पर भाजपा को तो यह तुष्टिकरण की नीति दिखता है. साफ है कि हेमन्त सरकार की झारखण्डी हितों में उठाये कदम से भाजपा नेताओं के पेट मे दर्द हो रहा है. क्योंकि एक तरफ उसकी राजनीतिक बैसाखी टूट रही है तो दूसरी झारखंडी मूल भावना उसकी दूरी साफ़ दिखने लगी है.