झारखण्ड : बड़ा सवाल? क्या भाजपा-थिंकटैंक की लेखनी ने सरकार को स्थानीय नीति के सम्बन्ध में कोई मानवीय सुझाव दिए हैं …नहीं? क्या पारा शिक्षक आंगनबाड़ी बहनों के दुर्दशा के दौर में तत्कालीन सरकार के विरुद्ध बुद्धिमत्ता का परिचय दिया …नहीं. मुख्यमंत्री द्वारा सदन में प्रधान मंत्री के झूठ उजागर करने पर हेमन्त सोरेन जैसे बहुजन-सर्ववर्गीय नेता को तानाशाह करार देते मैदान में कूदना संदेयास्पद? शायद इसे ही मनुवादी लेखनी कहा जा सकता है.
रांची : झारखण्ड की राजनीति में भाजपा-थिंकटैंक का लेखनी वर्ग भी अपने भ्रम व फूट डालने वाले शब्द कोष के साथ मैदान में खुले तौर पर कूद गया है. वह मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन के सदन में पेश वक्तव्य को आधा पेश कर झारखंडी आदिवासी-मूलवासी समाज में फूट डालने व भ्रम फैलाने के प्रयास को जारी कर दिया है. यह लेखनी मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन की तुलना प्रवासी-लोटा पानी नेता, पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास से करने से नहीं चुक रहे. उनका सोच जनता में व्याप्त मुख्यमंत्री के लोकतांत्रिक छवि को भ्रम के आसरे बिगाड़ना भर हो सकता है.
ज्ञात हो, इस लेखनी का दंश बहुजन समाज युगों से झेल रहा है. इसी लेखनी के बल पर बाबा साहेब अम्बेडकर, भगवान् बिरसा, दिसुम गुरु शिबू सोरन, बिनोद बिहारी महतो, लोहिया, लालू यादव, कांसी राम, और अब मुलायम सिंह की विचारों को कुचलने का प्रयास हुआ है. यह लेखनी चारकोल वाली आग की भांति धीरे-धीरे गरीब-बहुजन समाज में मनुवादी व्यवस्था से उत्पन्न व्याप्त दुःख-दर्द को उभार उसके ही नेता को खलनायक बनाने का प्रयास करता है.
भाजपा-थिंकटैंक का लेखनी वर्ग कब चुप रहता है
यह लेखनी जब पारा शिक्षको पर जब लाठियां बरसाई जाती है तब चुप रहता है. जब आँगन-बाड़ी के माँ-बहनों पर लाठियाँ बरसाई जाती तब चुप रहता है. जब पारा शिक्षक के समस्या के स्थाई समाधान निकाला जाता है तब चुप रहता है. यह लेखनी जब 1985 आधारित खतियान लाया जाता है तब चुप रहता है. जब कोई सत्ता सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की बात करता है तब चुप रहता है. जब आदिवासी-मूलवासी तमाम गरीबों के ज़मीन-अधिकार छीने जाते हैं तब चुप रहता है. राज्य की नुयुक्तियों में बाहरियों के लिए खुले-आम खोला जाता है तब चुप रहता है. भानु प्रताप साही जैसे नेता सदन में अभद्र शब्दों का प्रयोग करते है, फ़ासी रूप दिखाते है तब चुप है.
भाजपा-थिंकटैंक का लेखनी वर्ग कब अपनी बुद्धिमत्ता का कब परिचय देता है
समाज की विडंबना है कि यह लेखनी वर्ग तब सक्रीय होता है, अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देता है …जब झारखंडी समाज रघुवर दास जैसे मुख्यमंत्री के माध्यम से भाजपा की मंशा को समझ जाता है. जब कोई राजनीति एकीकरण की दिशा में बढती है. जब हेमन्त सोरेन जैसे मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जैसे प्रधान मंत्री का झूठ सदन में उजागर करता है. जब झारखण्ड जैसे राज्य की सत्ता पक्षीय राजनीति स्थाई समाधान के तरफ बढती है. जब कोई बहुजन राजनीति गरीब, आदिवासी-मूलवासी, विस्थापितों, सभी वर्गों के हित में विकास की बात करती है.
ऐसे संवेदनशील दौर में जब जनता सामाजिक मूल तथ्यों को समझने का प्रयास कर रही होती है तब यह लेखनी अपने भ्रम-फूट डालने वाले शब्दकोष के साथ मैदाम में कूद पड़ती है. जनता को ज्ञात हो तो कमेन्ट में बताये कभी इस लेखनी ने समाज के मूल समस्याओं के निदान में अपनी बुद्धिमत्ता प्रदर्शित की है. कभी समाजिक जुड़ाव, विकास के सन्दर्भ में सकारात्मक सन्देश दिया है. इनकी लेखनी के शब्द होते है ‘मुख्यमंत्री के शब्दों ने मूलवासी को आघात पहुचाया है’, ‘विपक्षी दल को मुद्दा दिया है’. लेकिन भाजपा के 1985 से 1932 के समर्थन पर उतरने जैसे मौकापरस्ती को गौण कर बुद्धिमत्ता का परिचय देता है. क्या ऐसे शब्द-समझ समाज को जोड़ने वाले हो सकते है?
बड़ा सवाल : क्या भाजपा थिंक टैंक के लेखनी ने कभी स्थानीय नीति को लेकर सरकार को सुझाव दिए है …नहीं?
बड़ा सवाल – क्या इस लेखनी ने कभी समाज को स्थानीय नीति के सम्बन्ध में कोई सुझाव प्रस्तुत किया है? क्या कभी भाजपा के मौकापरस्ती विचारधारा पर सवाल उठाया है? …नहीं. क्या कभी सीएनटी-एसपीटी शाजिश पर दो बौधिक शब्द लिखे हैं …नहीं. ऐसे में इस लेखनी का स्थानीय नीति परिभाषित करने से पहले सरकार को कठघरे में खड़ा करना संदेहास्पद है. शायद यह लेखनी मनुवाद को परिभाषित कर सकता है.
मसलन, झारखण्ड के 21 वर्षों की राजनीतिक इतिहास में पहली बार है जब राज्य में तमाम मूल समस्याओं के स्थायी हल निकालने के प्रयास हो रहे है. स्थाई स्थानीय परिभाषित करने का मानवीय प्रयास हो रहा है. जो झरखण्ड के आदिवासी-मूलवासी, दलित व तमाम वर्ग के समाज विकास को आगे लेकर जाएगा. समाज के तमाम वर्गों के मूलवासी को समझना ही होगा कि समाज में शान्ति व्यवस्था, राजनीतिक स्थिरता कायम किये बिना झारखण्ड विकास की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता. झारखण्ड के स्थानीय नीति परिभाषित होने तक समझ कायम रखनी होगी. आप खोये बिना सरकार को सुझाव देने होगे. आखिर कब तक स्थानीयता के लिए राज्य आपस में लड़ता रहेगा. यह दौर संभले का है, सरकार को सलाह देने का है. कहीं फिर चिड़िया खेत न चुग जाए.