झारखण्ड : भाजपा का यकायक 1985 से 1932 आधारित स्थानीयता के समर्थन में पाला बदलना दर्शाता है कि वह मौकापरस्ती के आलम में, सत्ता लोभ हेतु नैतिकता के न्यूनतम पराकाष्ठा को पार कर सकती है.
बीजेपी ने यकायक 1985 से 1932 आधारित स्थानीयता के समर्थन में बदला अपना पाला
झारखण्ड : पूर्व की बीजेपी सरकार में लाई गयी 1985 आधारित स्थानीय नीति के अक्स में राज्य के आदिवासी समेत झारखण्ड के तमाम वर्गों के बुनियादी हक की जबरदस्त अनदेखी हुई. राज्य के मजबूत तबके भले अप्रभावित रहे, लेकिन, राज्य के सभी वर्ग, विशेष कर कमजोर तबके के युवाओं के हक-अधिकार बाहरियों को बेचीं गई. नतीजतन राज्य के मूल वर्ग पीसते और पिछड़ते चले गए. लेकिन, तमाम पहलुओं के बीच भाजपा विचाधारा की बेशर्मी की पराकाष्ठा तब पार हुई, जब वह सदन में यकायक 1985 से 1932 आधारित स्थानीयता के समर्थन में अपना पाला बदल लिया.
ऐसे में गंभीर सवाल है कि वर्तमान भाजपा नेताओं की रघुवर सरकार में क्या बेचारगी रही कि वह ऐसे अन्याय के खिलाफ चुप थे? समर्थन में थे? आजसू दल भी इसी फेहरिस्त का हिसा भर रही. जाहिर है यह इनकी मौकापरस्ती ही हो सकती थी. और तमाम भाजपा नेता सत्ता की लालसा में राज्य को किसी भी मुहाने पर ला खड़ा कर सकते हैं. राज्य की नीलामी कर सकते है. यही इनकी राजनीतिक विचारधारा का आखिरी कटु सच हो सकता है. और ऐसे में तत्कालीन विपक्ष द्वारा लगाए गए आरोप कि रघुवर सरकार केन्द्रीय आकाओं के इशारे पर झारखण्डी स्मिता का दमन कर रही …सच था.
1932 आधारित स्थानीय नीति पर झारखण्ड सरकार का पक्ष
स्थानीय नीति पर झारखण्ड सरकार का पक्ष देखते हैं. मुख्यमंत्री द्वारा सदन में कहा गया कि भूमि सर्वे के आधार पर सथानीयता परिभाषित करने की इजाजत देश का क़ानून नहीं देता है. लेकिन उन्हें पता है कि झारखंडी जन भावना के अनुरूप कैसे स्थानीयता परिभाषित की जा सकती है. और सरकार जन भावना के अनुरूप स्थानीय नीति परिभाषित करने के पक्ष में दिखी. कहा यह मुद्दा उनके एजेंडे में है.
सरकार ने विधानसभा में विधायक सरयू राय के एक अल्पसूचित प्रश्न के उत्तर में अपना पक्ष साफ किया है. उत्तर में कहा गया कि राज्य सरकार 1932 के खतियान और अंतिम सर्वे को ध्यान में रखकर नयी स्थानीय नीति बनाने का पक्षधर है. झारखण्ड में लागू स्थानीय नीति की पुर्नसमीक्षा का मामला सरकार के समक्ष विचाराधीन हैं. राज्य सरकार ने इससे कभी इनकार नहीं किया है कि स्थानीय नीति में 1932 का खतियान मान्य नहीं होगा.
उत्तर मे बताया गया है कि राज्य के कई जिलों में 1964 में भी खतियान बना है, जबकि पलामू जिला में 1975 में सर्वे हुआ. संताल परगना प्रमंडल समेत कई जिलों में 5 पुश्तों से लोग रहे हैं, लेकिन वहां अंतिम सर्वे 1932 के बाद हुआ है, ऐसे में सिर्फ 1932 के खतियान को ही आधार बनाने से ऐसे लोग कहां जाएंगे, इसलिए सरकार ने सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर उचित निर्णय लेने का निर्णय लिया है.
नियोजन में स्थानीय व्यक्ति को परिभाषित करने वाली नीति को नयायालय ने 27 नवंबर 2002 को निरस्त कर दिया
ज्ञात हो, नियोजन में स्थानीय व्यक्ति की परिभाषा के संबंध में राज्य सरकार की नीति को उच्च न्यायालय में दायर दो जनहित याचिकाओं में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यीय खंड पीठ ने 27 नवंबर 2002 को निरस्त कर दिया है. और “स्थानीय व्यक्ति” को पुनः परिभाषित करने तथा स्थानीय व्यक्ति की पहचान के लिए दिशा निर्देश गठित करने के मामले में सरकार से निर्णय लेने की अपेक्षा की है.
ज्ञात हो, राज्य में बिहोर-आदिम जनजाति के खतियान नहीं है. कुछ ऐसे विचारधारा के भी लोग हैं जो अपनी ज़मीन को इश्वर की ज़मीन मानते है. तामाम परिस्थियों के बीच सीएम द्वारा सदन में रखे गए तथ्य से साफ़ है कि हेमन्त सरकार राज्य के भविष्य के लिए स्थायी स्थानीय नीति परिभाषित करने के पक्ष में है. वह 1932 की जन भावना समेत राज्य के तमाम मूलवासी वर्गों को न्याय देते हुए, विचार करते हुए, क़ानून की बारीकियों को समझते हुए, विस्थापन का हल निकालते हुए स्थानीय नीति बनाने की दिशा में बढ़ाना चाहती है.
सच भी है राज्य आखिर कब तक अपने स्थानीयता को परिभाषित करने की लड़ाई लडता रहेगा. सुखद भविष्य के लिए इस गंभीर समस्या का अंत होना ही चाहिए. न्यायालय का भी सहमती होना चाहिए, राज्य सरकार का सोचते-समझते हुए इस दिशा सधे क़दमों से बढ़ना उचित प्रतीत होता है. क्योंकि हड़बड़ में हमेशा गलतियाँ होने की सम्भावना बढ़ जाती है.