आजसू को छोड़ कर झारखंड के सभी दल व निर्दलीय विधायक हेमंत सोरेन के साथ खड़े हैं।
केंद्र सरकार की कोयला खदानों की नीलामी के साथ ही देश के कोयला क्षेत्र में निजी कंपनियों के लिए रास्ते खोले जाएंगे। ज्ञात हो कि इस सम्बन्ध में इस बार भी केंद्र ने राज्य सरकारों से सलाह लेना आवश्यक नहीं समझा। जाहिर है, झारखंड देश का सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है, इसका सबसे ज्यादा असर यहां के निवासियों पर ही पड़ेगा। और झारखंड में खनन का विषय हमेशा से ही ज्वलंत रहा है। इसलिए, झारखंड राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कोयला खदानों की नीलामी के संबंध में उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर किया है।
इस संबंध में, मुख्यमंत्री ने तर्क दिया है कि मोदी सरकार के इस कदम का सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव पड़ेगा। वन और जनजातीय दोनों आबादी खनन से प्रभावित होगी। भूमि और लोगों के अधिकारों से संबंधित मुद्दे, हमें पहले हल करने की आवश्यकता है। जबकि केंद्र इसे हल किए बिना पूँजीपतियों के दबाव में जल्दबाजी कर रहा है। हमें सर्वेक्षण के माध्यम से यह सुनिश्चित करना होगा कि कोयला ब्लॉक आवंटन राज्य के लोगों के हित में है या नहीं।
फिर से वही प्रक्रिया अपनाई जा रही है, जिससे हमारे पूर्वज लड़कर बाहर आए थे
श्री सोरेन ने कहा है कि 21 वीं सदी में फिर से वही प्रक्रिया अपनाई जा रही है, जिससे हमारे पूर्वज लड़कर बाहर आए थे। अब भी इस क्षेत्र के लोगों को वर्तमान व्यवस्था से अधिकार नहीं मिला है। विस्थापन की समस्या जस की तस है। झारखंड सरकार ने पहले ही केंद्र सरकार से मामले में जल्दबाजी नहीं करने का अनुरोध किया था। लेकिन, यह दुख के साथ कहना पड़ता है कि इस संबंध में केंद्र सरकार से कोई आश्वासन नहीं मिला है।
आज पूरी दुनिया तालाबंदी से प्रभावित है। भारत सरकार कोयला खदानों की नीलामी में विदेशी निवेश के बारे में बात कर रही है, जबकि विदेशों से आवागमन पूरी तरह से बंद है। झारखंड की अपनी स्थानीय समस्याएं हैं। प्रवासियों को राहत प्रदान करना सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है। आज यहां के उद्योग धंधे बंद हैं। ऐसे में कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया से राज्य को कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है। फिर भी केंद्र सरकार इतनी जल्दी में क्यों है? इसका केवल एक ही मतलब हो सकता है – पूंजीवादी विचारधारा देश को अपने गिरफ़्त में लेना चाहती है।
हेमंत का कद बढ़ा और विपक्ष पड़ा अलग-थलग
लोगों द्वारा झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के कदम की सराहना के कारण, जहां एक तरफ उनका कद बढ़ा है, वहीं विपक्ष अलग-थलग पड़ गया है। इसके साथ ही कई विश्वसनीय चेहरों से नक़ाब भी उतर गया है। झारखंड सरकार चाहती है कि कोल ब्लॉक पूँजीपतियों के बजाय भूमि मालिकों के हाथों में जाए। झामुमो इन मुद्दों पर हमेशा आंदोलन करता रहा है। क्योंकि पुराने सिस्टम की वजह से न केवल कोयला क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की स्थिति सुधरने के बजाय और खराब हो गई है। रोज़गार, मुआवजा, पर्यावरण जैसे मामले सुलझने के बजाय जाटील हो गए हैं।
राजद और युवा राजद के संयुक्त तत्वावधान में केंद्र सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ रांची के अल्बर्ट एक्का चौक पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पुतला दहन किया गया। कोयला ब्लॉक की नीलामी प्रक्रिया में राज्य सरकार की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए कड़े विरोध प्रदर्शन हुए। प्रदेश अध्यक्ष अभय सिंह ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया कि उसका ध्यान राज्य की भूमि और संपत्ति पर है।
आजसू को छोड़ कर झारखंड के सभी दलों ने हेमंत सोरेन का स्वागत किया है
CPI-ML, CPM, CPI और MASS वाम दलों ने मुख्यमंत्री के इस कदम का स्वागत किया है। 21 जून को, इस संदर्भ में, खनिज संपत्तियों की लूट को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका का एक संयुक्त बयान जारी कर समर्थन किया गया है। निर्दलीय विधायक सरयू राय ने सरकार के इस कदम का पहले ही स्वागत किया है। इस प्रकार केवल आजसू को छोड़ कर सभी दलों ने स्वागत किया है।
कोयला क्षेत्र से जुड़े श्रमिक संगठनों ने सरकार के फैसले के विरोध में कोल इंडिया और सिंएससीसीएल ने दो जुलाई से तीन दिवसीय देशव्यापी हड़ताल पर जाने का नोटिस दिया है। जिसकी मुख्य मांग कोयला खदानों में वाणिज्यिक खनन के लिए नीलामी पर रोक व कोल इंडिया के परामर्शदाता, सीएमपीडीआईएलके कंपनी से अलगाव पर रोक है।
मसलन, सत्तर के दशक में देश के सभी कोयला खानों का निजीकरण समाप्त करके राष्ट्रीयकरण किया गया था। उस समय लगभग सभी कोयला खनन क्षेत्र निजी मालिकों के हाथों में थे। उस समय, खदानों में काम करने वाले मज़दूरों की स्थिति गुलामों से भी बदतर थी। जिसके ऐतिहासिक अवशेष झारखंड के कई कोलियरियों में आज भी मौजूद हैं।
देश के प्रधानमंत्री अब राष्ट्र की संपत्ति को निजी कंपनियों को सौंपने को देशहित बता रहे हैं। यह किस तरह की देशभक्ति हो सकती है यह समझ से परे है, आप इसे जैसे समझना चाहते हैं समझें। लेकिन, गेंद अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। यह देखा जाना बाकी है कि निजी कोयला खदान मालिकों की शोषण आधारित व्यवस्था को फिर से सुनिश्चित करने वाले मोदी की जीत होती है, या हेमंत सोरेन की जो लोकतांत्रिक प्रणाली को बहाल करने की पहल कर रहे हैं!