बिरहोर, भारत की एक प्रमुख जनजाति है। बिरहोर जनजाति के संबंध में ये मान्यता है कि ये जिस पेड़ को छू देते हैं उस पेड़ पर कभी बंदर नहीं चढ़ते। बिरहोर जनजाति में परिवार सामाजिक संगठन की मूल इकाई है। साधारणतह बिरहोर परिवारों की प्रकृति पितृसत्तात्मक होती है। एक परिवार में पति-पत्नी व उनके बच्चे रहते हैं। बच्चों की आयु 10 वर्ष से अधिक होते ही उन्हें युवागृह अथवा गोतिआरा में भेज दिया जाता है। यदि परिवार के पास अपनी कोई संपत्ति होती है तो वह पिता से पुत्र को प्राप्त हो जाती है। इस जनजाति मे बहुपत्नी विवाह का प्रचलन होने के कारण बडी पत्नी के पुत्र को छोटी पत्नी के पुत्र से अधिक हिस्सा दिया जाता है। मौजूदा वक़्त में इनकी हालत झारखंड में बदतर है।
झारखंड के कोल्हान प्रमंडल के सरायकेला-खरसावां जिले के जोड़ा सरजम गांव के आदिम जनजाति के बिरहोर समुदाय की हालत काफी खराब है। आधुनिक युग में भी सिमडेगा जिले में आदिम जनजाति समुदाय बुनियादी सुविधाओं से महरूम है व शिक्षा से दूर है, आदिम काल की जीवन जीने को विवश है। घोर गरीबी और अशिक्षा के कारण यह समुदाय न केवल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है, बल्कि समाज के मुख्यधारा से भी कटा हुआ है। आदिम जनजाति के इस समुदाय बच्चे सड़क-चौराहों पर सारंगी के साथ भीख मांगते नजर आ जाते हैं। जीविका का नियमित स्त्रोत नहीं होने के कारण पूरा परिवार यत्र-तत्र भटकता रहता है।
इनके बच्चों को नियमित शिक्षा नहीं मिल पाने या शिक्षा के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं होने के कारण आधी-अधूरी पढ़ाई कर स्कूल छोड़ देते हैं। कहने को तो सरकार ने आदिम जनजाति युवक जो उच्च शिक्षा प्राप्त करेंगे, उनके लिए सीधी नौकरी का भी प्रावधान बनाया गया है। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े होने के कारण वे इसका भी लाभ नहीं उठा पाते। विदित हो कि आदिम जनजाति परिवार के बस्तियों में बुनियादी सुविधा का घोर अभाव होता है। सरकार द्वारा इन जनजातियों के सुध नहीं लिए जाने के कारण जैसे-तैसे गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। यह दुर्भाग्य है कि एक संपन्न राज्य में भी लुप्तप्राय जनजातियों के प्रति सरकार उदासीन है।
दूसरी रिपोर्ट के अनुसार झारखंड के कोल्हान प्रमंडल के सरायकेला-खरसावां जिले के जोड़ा सरजम गाँव के बिरहोर लोगों को सरकार से स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की आस है। गांव के सभी 14 परिवारों में कुल 50 सदस्य हैं। इनकी जीविका उपार्जन का एकमात्र साधन रस्सी तैयार कर बाजार में बेचना है। यहाँ यह समुदाय जंगल से पेड़ों की छाल व सीमेंट के बोरा से धागा निकालकर रस्सी बनाते हैं और बाजार में बेच कर गुज़र-बसर करते हैं। उनके पास रोजगार का कोई और विकल्प नहीं है। यहां के बिरहोर परिवार मुर्गा, बत्तख, सुकर पालन जैसे स्वरोजगार के साधन उपलब्ध कराने की मांग सरकार से करते आ रहे है, चूँकि ये सरकार के वोट बैंक नहीं हैं इसलिए इनकी सुध नहीं ली जा रही है।
मसलन, रोज़गार के लिए गांव के तीन लोग बिरहोर दूसरे प्रदेश जा चुके हैं। ग्रामीणों ने कहना है कि गांव की एकमात्र लड़की मुंगली बिरहोर ही मैट्रिक पास है। लेकिन सरकार के पास उसके लिए भी नौकरी नहीं है। जलापूर्ति नहीं हो रही है, पूरे गांव का सहारा एकमात्र चापाकल है। ऐसे में सरकार से गुजारिश है कि चुनावी मोड से बाहर निकल जरा इनकी भी सुध ले लें ताकि इस समुदाय को कुछ राहत मिल सके।