वैश्विक पर्यावरण सूचकांक में भारत 177वें पायदान पर

वैश्विक पर्यावरण सूचकांक में भारत का हालत लचर 

वैश्विक पर्यावरण सूचकांक की एक रिपोर्ट आयी जिसके अनुसार दुनिया के 180 देशों में पर्यावरण के क्षेत्र में किये गये प्रदर्शन के आधार पर भारत को 177वाँ पायदान दिया गया। इसके अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट ने विश्व के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 15 भारतीय शहरों को रखा। ‘हेल्थ इफे़क्ट्स इंस्टिट्यूट’ के एक अध्ययन के अनुसार साल 2017 में भारत में 12 लाख मौतें वायु प्रदूषण के प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष कारणों की वजह से हुईं।

जल संकट और भू-जल स्तर में तेज़ी से आती गिरावट से जुड़े कुछ हालिया आँकड़े भी एक भयावह दृश्य पेश कर रहे हैं। भारत सरकार के ‘नीति आयोग’ का यह अनुमान है कि वर्ष 2020 तक ही दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नयी और हैदराबाद सहित देश के 21 शहरों में रहने वाली 10 करोड़ आबादी को भू जल स्तर में रिकॉर्ड कमी का सामना करना पड़ेगा। जल संकट इसी गति से बढ़ता रहा तो 2030 तक देश की 40% आबादी को पेयजल तक मयस्सर नहीं होगा।

सभी तथ्य व आँकड़े यह साफ़ करते हैं कि पर्यावरण का संकट जो पूरे विश्व के समक्ष आज मुँह बाए खड़ा है, वह भारत में और भी दैत्याकार रूप लेते हुए एक आपातकालीन संकट का स्वरूप ले चुका है। ऐसे में कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि इस आपातकालीन संकट से जूझने के लिए प्रशासनिक स्तर पर कई गंभीर और कड़े नीतिगत फ़ैसले लेने की ज़रूरत है।

लेकिन, मौजूदा सरकार ने अपने इरादे साफ़ करते हुए “इज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस” के नाम पर पर्यावरण के निरंकुश दोहन की नीतियाँ बनाना और लागू करना, अलग ही कहानी बयान कर रहा है। जिस तेज़ी से विश्व पूँजीवाद हमारे पर्यावरण और प्रकृति का सर्वनाश करने की दिशा में बढ़ रहा है। विनाश की रफ़्तार इतनी है कि भारत दुनिया भर के देशों को पीछे छोड़ते हुए आने वाले दिनों में अस्तित्व के भयावह संकट की ओर तेज़ी से अग्रसर है। ऐसे में हाथ पर हाथ धरे बैठने का अर्थ है, प्रलय और विध्वंस का केवल इंतज़ार करना।

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