लोकसभा: युगपुरुष दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने 10वीं बार पर्चा भर रचा इतिहास

युगपुरुष दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने 10वीं बार लोकसभा का पर्चा भरने को आवाम ने त्यौहार के रूप में मनाया 

यह ऐतिहासिक सत्य है कि कोई भी व्यवस्था सनातन नहीं होती, हर शोषित समाज बदलता है और उस जैसा ही जुझारू इंसान बदलता है, जिनके आन्दोलन के दम पर ही हमेशा नयी पीढ़ी नए वातानुकूलित समाज में स्वतंत्र सांस लेती हैं। बेहतर विचारों व बेहतर आदर्शों को खुद में आत्मसात कर जब वह इंसान आंदोलनरत हो इतना बड़ा हो जाता है कि एक मिसाल बन जाता है, जिसे बदलाव का एक युग कहा जाने लगता है और वह दिशोम गुरु ‘शिबू सोरेन’ बन जाता है। जिसके व्यक्तित्व को देख कर, पढ़ कर केवल महसूस किया जा सकता है बयाँ नहीं।

एक झारखंड-पुत्र जिसका जन्म 11 जनवरी, 1944 के अमावस की रात, लोकतंत्र में राजतंत्र की काली रात में, नेमरा जैसे पिछड़े गाँव में होने के बावजूद समाज के लिए ऐसा दीपक बन जाता है जिसकी लव आज भी जुल्मियों को खौफ़जदा करती है। उस महामानव की जरूरत तब और समझ आती है, जब राजतंत्र के मुहाने पर खड़ी हमारी लोकतंत्र को बचाने वह महामानव दसवीं दफ़ा दुमका लोकसभा से पर्चा भर जब इतिहास लिखता है, जो काल को उनकी गाथा जन-जन तक पहुंचाने पर विवश करती है।

जिस बच्चे को उसके पिता ने बसंत पंचमी के दिन नहला-धुला माथे तिलक लगा हाथ में दुधी माटी का ढेला पकड़ा बोर्ड पर ‘क’ लिखा था वह आज तमाम झारखंडियों के लिए किताब बन गए हैं। इस किताब के पढने मात्र से शोषक, महाजन व जुल्मियों से लड़ने की ताक़त शोषितों में आ जाती है। इस किताब ने शोषितों को पछाड़ने के लिए पहली बार 1977 में लोकसभा का पर्चा भरा था, तब से लेकर अबतक फिर मुड़ कर कभी पीछे नहीं देखा। इस दौरान एक बार राज्यसभा के सदस्य रहे, झारखंड के मुख्यमंत्री रहे व साथ ही कोयला मंत्री भी रहे

बहरहाल, आज 22 अप्रैल को दसवीं बार लोकसभा के लिए उनके पर्चा भरने को अवाम ने जिस प्रकार एक त्यौहार के तौर पर मनाया, दर्शाता है कि आज भी वे अपने झारखंड को लेकर कितने जुझारू हैं देश और काल के अन्तर के बावजूद शिबू सोरेन का विश्लेषण आज के भारत में गाँव के ग़रीबों को उनके संघर्ष की सही दिशा को समझने में कितना मददगार हो सकता है, उनके इस जज़्बे से समझा जा सकता है आज देश में गरीब आवाम की जो स्थिति है उसके संदर्भ में यह विश्लेषण नयी दिशा देगा, ऐसी हमें उम्मीद है।

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