गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) किसके लिए ?

गणतंत्र दिवस के उलझे रास्ते 

मुड़कर चंद बरस पहले के वक्त को देखना और यह सोचना कि तब आजादी का मतलब यह तो नहीं था जो आज हो चला है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा पाने का हक छाती से लटकाए जिस राग को संविधान पारित के बरस सुना वह अब का लोकतंत्र तो नहीं। कैसे महज चार-पांच बरस बीतते-बीतते अपने ही देश में नागरिक होना, कहलाना और अपने मौलिक अधिकार की मांग करना सबसे बड़ा गुनाह हो गया, यह किसने सोचा होगा। हालात तो यह है कि बात भले कहीं से शुरु कर अंत कहीं भी करें, 5 अगस्त 1947 धोखा लगता है और 26 जनवरी ( गणतंत्र दिवस ) 1950 फरेब।

मुश्किल तो यहाँ यह है कि, आजादी को अपनी परिभाषा में ढालने एवं संविधान को गुलाम बनाने की कवायद इन सालों में उन्ही संस्थानों ने शुरु किया जिसे संविाधन ने सबसे ज्यादा अधिकार दिये। और माना कि देश के उलझे हुये रास्तों को यही संस्थान, लोकतंत्र के तीनो पाये नौकरशाही, न्यायपालिका और संसद सुलझायेंगे। लेकिन इस प्रक्रिया में संसद इतनी ताकतवर बन गयी की नेता-मंत्री खुद को मसीहा मानने लगे। सत्ता पाने की होड़ में ऐसी कवायद शुरु हुई कि जिस सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक परिपेक्ष्य में देश को देश से अवगत कराया वही बदल गया।

इण्डियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्रों में 29 साल या उससे अधिक उम्र के हर चार ग्रेजुएट में से एक (16.3 प्रतिशत) बेरोज़गार हैं (Jobs report gloomy, Indian Express, 1 April 2014) कुशल मज़दूरों की बात करें तो देश में हर साल 7 लाख इंजीनियर रोज़गार की तलाश में आ रहे हैं जिनमें से 2011-12 में 1.05 लाख को नौकरी मिल पाती है जबकि 2017-18 में यह संख्या घटकर 55,000 रह गयी (Crisis, NDTV Profit, November, 2014)। समाज की व्यापक आबादी जैसे मज़दूर-किसान और छात्र अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर सड़कों पर है।

मसलन, यह सवाल चाहे बीजेपी की भीतर अभी ना आये लेकिन 18 से 35 बरस तक के वोटर के जहन में यह सवाल जागने लगा है कि राजनेता हाथ हिला कर वादे करते हुये निकल जाये यह अब संभव नहीं है। संवाद और जनता के बीच दो दो हाथ करने की स्थिति में सत्ता संघर्ष करते नेताओं को आना होगा।

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