जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट और झारखंडी विस्थापित

सरकार, अदालतें और मीडिया खनन को वैध तरीके से चलाने की पुरज़ोर वकालत करते हैं। लेकिन मज़दूरों, मेहनतकशों के सामने तो असली सवाल यह है कि जहाँ यह ख़नन वैध तरीके से चल रहा है क्या वहाँ श्रम की लूट और प्रकृति का विनाश रुक गया है? अगर नहीं तो क्या वजह है कि सरकार, अदालतें और मीडिया मज़दूरों के श्रम की लूट के मुद्दे को एकदम गोल कर जाते हैं? उनका कुल ज़ोर ख़दानों को कानूनी बनाने पर ही क्यों रहता है। इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए राज्य में मौजूद जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट ( डीएमएफ ) के केंद्र में कौन है या किसे होना चाहिए मालूम करना होगा? इस सवाल को समझने के लिए हमे पहले जिला खनिज फाउंडेशन को क्यूँ और किसके लिए अस्तित्व में लाया गया इसे समझना होगा।

जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट ( डीएमएफ )  के गठन का मूल्य उद्देश्य है कि जिला में खनन गतिविधियों से विस्थापित या अपनी आजीविका के मद्धेनजर हासिये पर धकेले जाने वाले समुदाय का कल्याण सुनिश्चित हो सके। मतलब साफ़ है कि जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट ( डीएमएफ ) वैसे लोगों के कल्याण और विकास पर जोर देता जो परिवारया या समुदाय खनन गतिविधियों से विस्थापित और आजीविका प्रभावित हुए हैं। भारत के 12 खनन राज्यों के 20 जिलों के खनिज फाउंडेशन ट्रस्टों ( डीएमएफ ) के खातों में 18,467 करोड़ रूपये जमा है। जबकि झारखण्ड को 2696 करोड़ की राशि प्राप्त हुई है और कोल्हान के पश्चिमी जिलों के डीएमएफ खातों में 400 करोड़ से ज्यादा का फण्ड जमा है।

मौजूदा काल में यह भी सत्य है कि झारखण्ड के जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट ( डीएमएफ ) अपने वैधानिक कर्तव्यों का पालन उच्चित रूप से न कर ग्राम सभा को दी गई शक्तियों का लगातार उल्लंघन कर रही है, जो कि नियम के विरुद्ध है और क़ानून अपराध भी। विडम्बना यह है कि रघुवर राज में इसका परवाह करता कौन है? जब कि सच्चाई यह है कि इस ट्रस्ट में नौकरशाहों, सत्ताधारी एवं सत्ता से सांठगांठ रखने वाले राजनीतिज्ञों का बोलबाला है। उनकी ही चांदी कट रही है। इतना ही नहीं पश्चिम सिंहभूम जिला के डीएमएफ फंड का उपयोग और पर राज्य सरकार लगातार हस्तक्षेप कर रही है। यह सरकार इस फण्ड का उपयोग शौचालय बनवाने में कर रही है।

दूसरी सच्चाई यह है कि जिला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट ( डीएमएफ ) का निवेस अत्याधिक प्रभावित क्षेत्रों के लोगों के कल्याण में नाम मात्र भी नहीं किया जा रहा है।   जबकि किरीबुरु और नोवामुंडी के खनन क्षेत्रों में लौह अयस्क का खनन और प्रोसेसिंग के वजह से नंदियों के साथ-साथ तमाम जल श्रोत अत्याधिक दूषित हो चुका है। खनन होने से पहले यहाँ के क्षेत्रों में रहने वालों को कम से कम साफ पीने लायक पानी पीने को मिल जाया करता था परन्तु अब यहाँ के आदिवासी लाल पानी को विवश है। स्थिति यह है कि विकास के नाम पर उन्हें जबरन लाल पानी पिलाया जा रहा है। सरकार की नीतियों, नौकरशाहों-राजनीतिज्ञों के रवैये से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ के आदिवासियों को धीरे-धीरे मार दिए जाने की शाजिश हो रही है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर यह रघुबर सरकार का विकास का कैसा मॉडल है जिसमें विस्थापित भी आदिवासी और मूलनिवासी होते है और विकास की कीमत भी वही चुकाते है।

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