क्यों वन अधिकार क़ानून 2006 बीजेपी को खटक रहा है?

 

आज भारत के झारखण्ड जैसे कई वन क्षेत्रों में लोग लोकतंत्र, आजीविका और गरिमा के लिए लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं। अनुसूचित जनजाति के साथ-साथ कई अन्य पारम्परिक वनवासियों के संघर्ष में (वन अधिकारों को मान्यता) कानून, 2006 एक महत्वपूर्ण हथियार है या यूँ कहें यह कानून ब्रह्मास्त्र ही है।

इस कानून की आवयश्कता क्यों ?

जंगल में बसने वाला आदिवासी

भारत के वन भूमि और उसके आस-पास के क्षेत्रों में लाखों लोग बसते हैं फिर भी उनके घरों, भूमि या वनों से प्राप्त आजीविका के लिए उन्हें कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। केवल कुछ ही सरकारी अधिकारियों के पास सभी प्रकार की कानूनी शक्तियां केंद्रित हैं। जिसके कारण जंगल और वनवासी दोनों ही अत्यंत कठिनाइयों का सामना करते हैं। यह कानून ऐसे ही वनवासियों के अधिकारों को मान्यता देता है और इनके संरक्षण को अधिक जवाबदेह बनाता है।

वन अधिकारों को मान्यता कानून, 2006

वन अधिकार क़ानून 2006 को संसद ने 18 दिसम्बर, 2006 को सर्वसम्मति से अनुसूचित जाति एवं अन्य पारम्परिक वनवासियों के अधिकारों का संरक्षण के लिए पारित किया गया। यह मात्र एक अन्य कानून भर नहीं बल्कि इनके अधिकारों को संरक्षण देने वाली अचूक हथियार है।  

इसके पारित होने के समय और बाद के वर्षों में भी इसकी आलोचना यह कहकर होती रही कि यह सिर्फ  वनों के निजीकरण का प्रयास है। इससे बचे हुए बाकी बाघों का विनाश हो जाएगा। जबकि देखा ये जा रहा था, भारत के व्यापक वन क्षेत्रों में इस कानून का असर अच्छा पड़ रहा था जबकि इस पर अमल अभी शुरू भी नही हुआ था, वन क्षेत्रों में आमूल बदलाव नजर आने लगा। परिणामस्वरूप वन अधिकारियों को वनक्षेत्रों से वापस किया जाने लगा। इस क़ानून को पारित होने के एक साल बाद अधिसूचित किया गया।

लगभग एक सदी से अधिक समय तक भारतीय वनों की शासन व्यवस्था उन भारतीय वन कानूनों के प्रावधानों के अनुसार की जाती रही जो 1876 से 1927 तक पारित थे। इन कानूनों का पर्यावरण संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं था। ब्रिटिश शासकों ने इस क़ानून को केवल इमारती लकड़ी का इस्तेमाल एवं वन प्रबन्धन को अपने हाथ में लेने के लिए बनाया था। इन कानूनों ने सरकार को भी वनों के किसी भी क्षेत्र को रिजर्व और संरक्षित करने के लिए अधिसूचित करने का अधिकार दे दिया था।

चूँकि इन कानूनों का प्राथमिक मकसद वन भूमि पर कब्जा ज़माना तथा सम्बन्धित समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित करना था, इसलिए बन्दोबस्त की इस प्रक्रिया का विफल होना तो निश्चित था और वास्तव में ऐसा हुआ भी। सर्वेक्षण का काम तो कभी किया ही नहीं गया। उदाहरण स्वरुप मध्य प्रदेश के 82.9 प्रतिशत वन खण्डों का आज तक सर्वेक्षण नहीं किया गया जबकि ओडिशा में 40 प्रतिशत से ज्यादा राज्य के वनों को रिजर्व वन माना जाता है, जहाँ अधिकार सम्बन्धी बन्दोबस्ती का काम अब तक नहीं हुआ। जहाँ दावों के निस्तारण का काम हुआ भी वहाँ सामाजिक रूप से कमजोर समुदायों, खासकर आदिवासियों के अधिकारों के दावों को मुश्किल से ही दर्ज किया गया। ये समुदाय बन्दोबस्त प्रक्रिया तक पहुँच बनाने में असमर्थ रहे। 

आजादी के बाद देश की स्थिति और बद से बदतर हो गई। 1952 में ही राष्ट्रीय वन नीति लायी गई, जिसमें आदिवासियों को जंगल उजाड़ने हेतु दोषी ठहराया गया। 1972 में वन्यजीवन के सुरक्षा के नाम पर कानून बनाया गया और लाखों लोगों को जंगल से हटा दिया गया। वर्ष 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने तो यहां तक कहा कि आदिवासी ही जंगलों को बर्बाद करते हैं इसलिए अगर जंगल बचाना है तो आदिवासियेां को जंगलों से बाहर निकालना जरूरी है। सन 1980 में तो हद यह रहा कि सरकार ने ‘वन संरक्षण अधिनियम’ लागू किया, जिसमें जंगल का एक पत्ता तोड़ने को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया। इस तरह से जंगल को आदिवासियों से छिन लिया गया। असम और महाराष्ट्र में तो स्थिति यह थी कि बूलडोजर और हाथियों को इस कार्यो में लगाया गया। जबकि जंगलों को बर्बाद करने वाले ठेकेदारों, पूंजीपतियों, नौकरशाहों और सत्ता के दलालों पर एक उंगली तक नहीं उठाई गई। इतना ही नहीं 1 लाख आदिवासियों पर फर्जी मुकदमा कर जेलों में बंद कर दिया गया था।

इस कानून ने बुनियादी ढाँचा प्रस्तुत किया है

इस कानून के तहत पात्रता के दो चरण हैं:-

  • किसी भी दावेदार को यह साबित करना है कि वह ‘मुख्यतः वनों के निवासी’ है और जीविकोपार्जन के लिए वनों तथा वन-भूमि पर निर्भर है।
  • दावेदारों को यह भी साबित करना है कि उपर्युक्त स्थिति पिछले 75 साल से बनी हुई है और इस मामले में वे अन्य पारम्परिक वनवासी हैं- धारा 2(ओ), अथवा वे अनुसूचित जाति के हैं और उस इलाके में रह रहे हैं जहाँ वे अनुसूचित – धारा 2(सी) और 4(1) हैं और वे वनवासी अनुसूचित जनजाति के हैं।

इस कानून के तहत तीन बुनियादी अधिकारों को मान्यता

विभिन्न प्रकार की जमीन, जिसकी निर्धारण की आधार तिथि 13 दिसम्बर, 2005 है (अर्थात उस तिथि से पूर्व से उस पर उसका कब्जा है और वह उसे जोत रहा है) और यदि कोई दूसरा दस्तावेज उपलब्ध न हो तो प्रति परिवार 4 हेक्टेयर की भू-हदबन्दी लागू होगी।

पारम्परिक रूप से लघु वनोत्पाद, जल निकायों, चरागाहों आदि का उपयोग हो रहा हो।

वनों एवं वन्य-जीवों की रक्षा एवं संरक्षण, यह वह अन्तिम अधिकार है जो इस कानून का अति क्रान्तिकारी पक्ष है। यह उन हजारों ग्रामीण समुदायों के लिए महत्त्वपूर्ण है जो वन माफियाओं, उद्योगों तथा जमीन पर कब्जा करने वालों के खतरों से अपने वनों तथा वन्य जीवों की रक्षा में लगे हुए हैं। इनमें से अधिकतर वन विभाग की साँठ-गाँठ से इस काम को अंजाम देते हैं। पहली बार यह वास्तविक रूप से भावी जनतान्त्रिक वन प्रबंधन का द्वार खोलता है और इसकी सम्भावना पैदा करता है।

इसकी प्रक्रिया:

कानून की धारा 6 में तीन चरण वाली इस प्रक्रिया की व्यवस्था है जिसके अनुसार, यह तय किया जाएगा कि किसे अधिकार मिले। प्रथम ग्राम सभा (पूरी ग्राम सभा, ग्राम पंचायत नहीं) सिफारिश करेगी कि कितने अरसे से कौन उस जमीन को जोत रहा है, किस तरह का वनोत्पाद वह लेता रहा है, आदि।

यह जाँच ग्राम सभा की वनाधिकार समिति करेगी, जिसके निष्कर्ष को ग्राम सभा पूरी तरह स्वीकार करेगी। ग्राम सभा की सिफारिश भी छानबीन के दो चरणों से गुजरेगी- तालुका और जिला स्तरों पर। जिला स्तरीय समिति का फैसला अन्तिम होगा।

इन समितियों में छह सदस्य होंगे − तीन सरकारी अधिकारी और तीन निर्वाचित सदस्य। दोनों − तालुका और जिला स्तरों पर कोई भी व्यक्ति, जो यह समझता है कि दावा गलत है, इन समितियों के सामने अपील दायर कर सकता है और यदि उसका दावा साबित हो जाता है तो दूसरों को अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा।

अन्तिम, इस कानून के तहत स्वीकृत जमीन न बेची जा सकेगी और न उसका अधिकार दूसरे को हस्तान्तरित किया जा सकेगा।

कानून की धारा 5 (1) में वन अधिकारों के धारकों के कर्तव्य बताए गए हैं, नियम की धारा 6 (1) में भी यही बात कही गई है पर कानून की धारा 3 (1) (झ) में धारकों को यह अधिकार दिए गए हैं कि उन्हें ऐसे किसी सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनरुजीवित या संरक्षित या प्रबंध करने का अधिकार है, जिसका वे सतत् उपयोग के लिए परम्परागत रूप से संरक्षा और संरक्षण कर रहे हैं।

 आदिवासी नेताओं का कहना है कि जहाँ-जहाँ आदिवासी जंगलों में बसे हुए हैं, वहीँ-वहीं जंगल बचे हुए हैं। उनका कहना है कि वन माफिया उन्हीं इलाकों में सक्रिय हैं, जहाँ से लोग विस्थापित हो गए हैं। वन आश्रितों की संस्कृति में पेड़-पौधे एवं वन्य जीव रचे-बसे हुए हैं, इसलिए उन्हें प्रकृति प्रेमी और जंगल के वास्तविक अधिकारी माना जाना चाहिए।

हाल ही में कमपनसेट्री अफॉरेस्टेशन (CAMPA) के अंतर्गत 47000 करोड़ रुपये जंगल पर आश्रित समुदायों की ज़मीनों पर वृक्षारोपण करने के इरादे से आबंटित किया गया है। वन्य जीवों के लिए संरक्षित वन क्षेत्रों में इस कानून का अमल अभी भी न के बराबर है और लोगों को विस्थापित करने की प्रक्रिया जबरन जारी है।

झारखंड हाई कोर्ट और विभिन्न जिलों के दो दर्जन से ज्यादा वकीलों ने वनाधिकार कानून के अनुपालन में सरकार द्वारा बरती जा रही गड़बड़ियों के खिलाफ कानून सम्मत कार्यवाही की पहल का निर्णय लिया। इसके लिए वनाधिकार मंच के लीगल सेल का गठन किया गया।

सुप्रीम कोर्ट की वकील और जनजातिय कार्य मंत्रालय के साथ जुड़ी कानूनी सलाहकार शोमाना खन्ना ने कहा, “वनों पर आश्रित और ऐतिहासिक अन्याय से निजात पाने में संघर्षरत आदिवासी समुदाय के लिये वनाधिकार कानून का प्रभावी अनुपालन समुदाय के विकास की कुंजी हो सकता है। लेकिन फिर भी, यह पाया गया है कि कानूनी प्रावधानों और नौकरशाही बाधा के कारण स्पष्ट समझ की कमी के कारण, वन निर्भर आदिवासी समुदायों को उनके सही दावों को प्राप्त करने में असमर्थ हैं। इसलिए कुछ कानूनी हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता है”। उन्होंने कहा कि झारखंड जैसे राज्य में वनाधिकार वनों पर आश्रित समुदायों को जंगल पर मालिकाना हक देता है जो काफी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि वन विभाग और कल्याण विभाग की इस कानून को लागू करने में रुचि नही है। 

झारखण्ड में 23 अप्रैल 2018 वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन में हों रही लापरवाही और प्रतिपूरक वनरोपण कानून के विरोध में पलामू जिला समाहरणालय उपयुक्त को राज्यपाल के नाम ज्ञापन सौपा गया। ज्ञापन में कहा गया कि वनाधिकार कानून में ग्राम सभा के अधिकार सर्वोपरि है लेकिन प्रशासनिक अधिकारी इसे न मानते हुए मनमाने निर्णय के आधार पर समुदायिक अधिकार में कटौती कर रहे है। प्रत्येक प्रक्रिया में वन विभाग, राजस्व विभाग यहाँ तक की अंचल अधिकारी के हस्ताक्षर के आधार पर कार्यवाही होती है, जबकि वनाधिकार कानून स्पष्ट रूप से यह अधिकार ग्राम सभा को दिए हैं। इसी ज्ञापन में प्रकाशित राष्ट्रीय वन नीती के मसौदे का भी विरोध किया गया। इनका कहना है कि यह वनाधिकार कानून के अनुरूप नहीं है, ग्राम सभा के अधिकारों को अनदेखा किया गया है। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत निजी कंपनियों के माध्यम से जंगलों का व्यवसायिकरण किया जा रहा है, जो झारखण्ड के आदिवासी व अन्य परम्परागत वन निवासी को अधिकार से वंचित किया जा रहा है।   

चूँकि इस क़ानून के तहत वन संसाधनों के उपयोग और प्रबंधन का अधिकार वनाश्रित समुदायों को दिया गया है इसलिए इसके अधिकार की मान्यता ग्राम सभा के मंजूरी के बिना संभव नहीं है।

बहरहाल इस कानून ने वन्य भूमि को गैर-वन्य उपयोग के लिए होने वाले डायवर्जन को दुरूह बना दिया है और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन के लिए बाहरी पूंजी निवेश पर आधारित नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह में बाधा उत्पन्न कर दिया है| इसलिए भाजपा की केंद्र व राज्य सरकारें इस कानून को कमज़ोर करने के लिए हर संभव प्रयास करती दिख रही है। कैम्प के आड़ में भी रघुवर सरकार इसी कानून का उल्लंघन कर रही है।

 

 

 

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