ईवीएम की पवित्रता पर लोकतंत्र को बिकुल चिंतित होना चाहिए 

भारत जैसे लोकतंत्र में ईवीएम की पवित्रता पर सवाल 

2004 के बाद से भारत में लगभग सभी लोकसभा विधानसभा चुनाव ईवीएम से ही हुए हैं। हालांकि शुरू से ही इसे लेकर विवाद रहा है। शिवसेना, भाजपा, राकांपा, तेदेपा, तृणमूल, जद-एस, सपा, बसपा, माकपा, आप, कांग्रेस सहित लगभग सभी प्रमुख चुनावी पार्टियों के नेता ईवीएम से मतदान की प्रक्रिया पर सवाल उठाते रहे हैं। यह बात अलग है कि परिणाम उनके पक्ष में आने पर उनका रुख़ बदल गया और वे चुप्पी साध गये।

भाजपा और आरएसएस जैसे संगठन हर हाल में चुनाव जीतने के लिए ज़बदस्त सा‍ज़िशाना तौर पर ईवीएम मशीनों की धाँधली व दूसरे तमाम तरीक़ों का इस्तेमाल ज़्यादा संगठित ढंग से बड़े पैमाने पर करते हैं। जैसे, इस चुनाव में अकेले मध्यप्रदेश में 60 लाख फ़र्ज़ी वोटर होने का आरोप लगा जो किसी भी चुनाव की दिशा बदलने के लिए काफ़ी है। आन्ध्र प्रदेश और कई अन्य राज्यों में लाखों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से ग़ायब कर दिये गए थे, जिनके बारे में माना गया कि वे भाजपा के विरोधी हैं।

मौजूदा दौर में जब अदालतों से लेकर पुलिस, और मीडिया से लेकर चुनाव आयोग तक तमाम जनतांत्रिक संस्थाओं को एक पार्टी का ग़ुलाम बना दिया गया हो, उनमें अपने कारिन्दे भरे जा रहे हैं, ज़ोर-ज़बरदस्ती, दबाव और भयादोहन से उनसे काम लिया जा रहा हो, जब आतंकवाद के आरोपी संसद पहुँच रहे हैं और उन पर से मुक़दमे हटाये जा रहे हों, जजों की हत्याएँ हो रही हों और गौ-रक्षक रूपी गुण्डे अपना क़ानून चलाने के लिए आज़ाद हों, तो ऐसे में सवाल उठना लाज़ि‍मी है कि वह चुनाव प्रक्रिया आख़िर कितनी साफ़-सुथरी है जिससे देश के भविष्य का फ़ैसला होता है।

चुनाव आयोग का दावा है कि ईवीएम बिल्कुल पवित्र है और उससे छेड़छाड़ संभव ही नहीं। लेकिन कम्प्यूटर और साइबर सुरक्षा की दुनिया से वाकि़फ़ व्यक्ति यह जानता है कि सुरक्षा में अगर सुई बराबर भी छेद हुआ तो उससे हाथी बराबर घातक कोड प्रवेश कर सकता है! ईवीएम के मामले में, छेद केवल तकनीकी या कम्प्यूटर-प्रोग्रामिंग से सम्बन्धित हो, यह ज़रूरी नहीं। प्रशासकीय प्रक्रिया में झोल या फेरबदल या मानवीय कमज़ोरियों के कारण छूट गये छेद भी गड़बड़ी के लिए काफ़ी हैं।

वैसे भी चुनाव आयोग के ईवीएम की पवित्रता व अभेद्य सुरक्षा के दावों की हवा हाल की अनेक घटनाओं ने निकाल दी है। उदाहरण के लिए, आरटीआई से मिली जानकारी के आधार पर 20 लाख ईवीएम लापता हैं। दिलचस्प बात यह है कि जब इस आरटीआई कार्यकर्ता मनोरंजन राय ने चुनाव आयोग से अलग-अलग राज्यों को भेजी गयी ईवीएम के आईडी नम्बर और ट्रांसपोर्ट चालान की प्रतियाँ माँगीं, तो उन्हें केवल ईवीएम के सालाना बजट और ख़र्च की जानकारी देते हुए यह कहकर पल्ला झाड़ लिया गया कि यह ख़बर एकतरफ़ा है। श्री राय की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 

बहरहाल, उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि भाजपा ने इस चुनाव में अत्यंत कुशलता के साथ, और योजनाबद्ध ढंग से, चुनी हुई सीटों पर ईवीएम में गड़बड़ी का खेल खेला। जिन लोगों ने भाजपा जैसे विचारधारा वाली पार्टियों का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि फ़ासिस्ट सत्ता तक पहुँचने के लिए किसी भी स्तर तक की धाँधली और अँधेरगर्दी कर सकते हैं। अगर ऐसा नही था तो इतनी बदनामी झेलकर भी सुप्रीम कोर्ट और केन्द्रीय चुनाव आयोग के नख-दन्त तोड़कर पालतू बना देने की ज़रूरत ही क्या थी? सोचने की बात है कि करीब डेढ़ महीने का समय ख़र्च किया चुनाव कराया जा सकता था, तो 50 प्रतिशत वीवीपैट की पर्चियों से मिलान कराने में अगर नतीजे घोषित करने में कुछ दिन और लग जाते तो क्या क़हर टूट पड़ता।

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