15वें वित्त आयोग केंद्रीय सिफारिशों को आधार मानती है

जैसा कि सभी को ज्ञात है कि भारतीय वित्त आयोग का गठन राष्‍ट्रपति द्वारा भारतीय संविधान की धारा 280 के तहत 1951 में किया गया। इस आयोग को केंद्र और राज्‍य के मध्य वित्तीय संबंधों को परिभाषित करने के लिए अस्तित्व में लाया गया था। वित्त आयोग के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्य नियुक्त किये जाते हैं। साथ ही संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों (268-271, 274, 275, 280, 281) में इस महत्वपूर्ण मुद्दे का प्रावधान मिलता है। वित्त आयोग से जुड़ी अतिरिक्त जानकारी नीचे दी गई है:

वित्त आयोगनियुक्ति वर्षअध्‍यक्षअवधि
पहला1951केसी नियोगी1952-1957
दूसरा1956के संथानाम1957-1962
तीसरा1960एके चंद्रा1962-1966
चौथा1964डॉ पीवी राजमन्‍नार1966-1969
पांचवां1968महावीर त्‍यागी1969-1974
छठा1972पी ब्रह्मानंद रेड्डी1974-1979
सातवां1977जेपी सेलट1979-1984
आठवां1982वाई पी चौहान1984-1989
नौवां1987एन केपी साल्‍वे1989-1995
10वां1992केसी पंत1995-2000
11वां1998प्रो एएम खुसरो2000-2005
12वां2003डॉ सी रंगराजन2005-2010
13वां2007डॉ विजय एल केलकर2010-2015
14वां2012डॉ वाई वी रेड्डी2015-2020

 ज्ञात हो कि केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 15वें वित्त आयोग के गठन की मंजूरी मिलने के बाद, 30 जुलाई 2018 को श्री एनके सिंह को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। नए वित्त आयोग की सिफारिशें 1 अप्रैल, 2020 से शुरू होने वाले पांच साल की अवधि के लिए प्रभाव में रहेगी। सरकार की अधिसूचना के अनुसार वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों के पूर्व सचिव शक्तिकांत दास, पूर्व मुख्य ​आर्थिक सलाहकार अशोक लाहिड़ी, नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद और जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर अनूप सिंह के रूप में सदस्य नियुक्त किए गए हैं। यह आयोग केंद्र और राज्य सरकारों के वित्त, घाटे, ऋण स्तर की स्थिति की समीक्षा करेगा। यह मजबूत राजकोषीय प्रबंधन के लिए सुझाव देगा तथा इसके साथ साथ माल व सेवा कर (जीएसटी) प्रणाली के केंद्र व राज्यों की वित्तीय स्थिति पर असर का भी आंकलन करेगा। यह आयोग केंद्र से राज्यों को मिलने वाले अनुदान के नियम भी तय करता है।

हालांकि, इसे मोदी सरकार द्वारा जारी एक नीचले स्तर की सार्वजनिक अधिसूचना मानी जा रही है, जो कि सिर्फ एक जिंदा बम के अलावा कुछ भी नहीं है। नये स्थापित 15वें वित्त आयोग ने यह घोषणा किया है कि वह 2011 की जनगणना को केंद्रीय सिफारिशों का आधार मानती है और इसी के आधार पर निर्णय लिया जाएगा कि राज्यों को कितनी धनराशि स्थानांतरित की जाय। यह नौकरशाही प्रक्रिया के एक रहस्यमय हिस्से की तरह प्रतीत हो सकता है लेकिन वास्तविकता में इसके व्यापक प्रभाव होंगे।

वित्त आयोग जटिल सूत्रों के उपयोग का निर्णय लेता है कि प्रत्येक राज्य को कितने संसाधन स्थानांतरित किये जाएगें। इस साझाकरण में विचारणीय मुद्दे आबादी (अधिक आबादी, अधिक संसाधन),  क्षेत्र (अधिक क्षेत्र, अधिक संसाधन) और औसत आय होते हैं। इन सभी कारकों को सूत्र के रुप में इस्तेमाल किया जाता हैं।

वर्तमान मोदी सरकार ने एकतरफा निर्णय लेते हुए बिना परामर्श के 2011 के जनगणना को आधार बनाते हुए 15 वीं वित्त आयोग को निर्देषित किया है जिस कारण दक्षिणी राज्यों में विवाद पैदा हो गया है। यह इसलिये महत्वपूर्ण है क्यूंकि सन् 1971 से 2011 के अंतराल में देश के राज्यों में असमान जनसंख्या वृद्धि दर्ज हुई है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु की आबादी में 75% और केरल मे 56% की वृद्धि हुई, जबकि राजस्थान में 166%, हरियाणा में 156% और बिहार में 146% की वृद्धि हुई है। इसलिए, 1971 से 2011 की आबादी का बदलाव का मतलब होगा कि तमिलनाडु और केरल को दिए जाने वाले संसाधनों का हिस्सा कम हो जाएगा, तो वहीँ राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों में वृद्धि होगी।

दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिन राज्यों के प्रजनन दर में गिरावट आयी है उन्हें दंडित किया जा रहा है। और ठीक इसके उलट अधिक प्रजनित इलाकों को पुरस्कृत किया जा रहा है। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि अधिक आबादी को अधिक संसाधन मिलना चाहिए। ध्वनि आकर्षण की दृष्टि से यह तार्किक हो सकता है, लेकिन जो राज्य अपनी जनसंख्या सिमित रखने में कामयाब रहे उन्हें पुरस्कृत करने के बजाए उनके विकास को रोककर किस बात के लिए दण्डित किया जा रहा है। इससे बेहतर होगा कि सरकार सीधे तौर पर कहे कि भाजपा शासित राज्यों को ज्यादा आर्थिक मदद की जाएगी।

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