क्या वालमार्ट का फ़्ल‍िपकार्ट को खरीदने का सच  जानना चाहेंगे?

वालमार्ट और अमेज़न के बीच लम्बी प्रतिद्वन्द्विता के बाद आखि़रकार वालमार्ट ने फ़्ल‍िपकार्ट को खरीद ही लिया।  वालमार्ट ने पूरी कम्पनी का मूल्य 21 अरब डॉलर आँकते हुए इसके 77% शेयर 16 अरब डॉलर में ख़रीद ली। अगर हम इस खेल को तकनीकी तौर पर देखें तो जो कम्पनी बिकी है, वह भारत में पंजीकृत फ़्ल‍िपकार्ट का मालिक सिंगापुर फ़्ल‍िपकार्ट नामक कम्पनी है। फ़्ल‍िपकार्ट हालाँकि 2007 में भारत में ही स्थापित हुई थी लेकिन बाद में पूँजी की बढ़ती आवश्यकता के लिए सिंगापुर में इसी नाम से एक कम्पनी स्थापित की गयी, जिसने भारतीय कम्पनी के अधिकांश शेयर ख़रीद लिये।

सिंगापुर की इस कम्पनी ने पूँजी के लिए कई निवेशकों को शेयर जारी किये और अभी इसके सर्वाधिक 23% शेयर जापान के सॉफ़्टबैंक के पास हैं। अन्य निवेशकों में चीनी टेंसेण्ट, अमेरिकी टाइगर ग्लोबल, माइक्रोसॉफ़्ट, एकसेण्ट, आदि हैं। इन सभी के पास इसके 80% से अधिक शेयर हैं तथा शेष इसके संस्थापकों– सचिन व बिन्नी बन्सल तथा कम्पनी के कुछ प्रबन्धकों के पास हैं। इस प्रकार देखा जाये तो इस कम्पनी के वर्तमान मालिक भी विदेशी वित्तीय पूँजी निवेशकगण ही हैं, जिन्होंने अब कम्पनी में अपना हिस्सा एक और विदेशी निवेशक को बेच दिया है। इसलिए एक देशी कम्पनी के विदेशी कम्पनी के हाथ में चले जाने के नाम पर हास्यास्पद हायतौबा मचाने के बजाय इसके वास्तविक निहितार्थों को समझने की आवश्यकता अधिक है।

इस सौदे पर ख़ास प्रतिक्रिया दो समूहों की है – एक, बीजेपी और दूसरी उसकी भोंपू कॉर्पोरेट मीडिया तथा उनके तथाकथित अर्थनीति विश्लेषक। इनका कहना है कि इस सौदे से भारत में भारी पूँजी निवेश और विकास होगा। दूसरा समूह वह है जो भारतीय समाज में अभी भी दलाल पूँजीपति वर्ग, अर्ध-सामन्ती अर्ध-औपनिवेशिक या नवऔपनिवेशिक सम्बन्ध देखने पर अड़े हुए हैं। पर दोनों ही इस बात को पूरी तरह छिपा या नज़रन्दाज़ कर जाते हैं कि फ़्ल‍िपकार्ट पहले से ही विदेशी वित्तीय पूँजी के मालिकाने में थी और अब भी वहीँ रहने वाली है। एक शेयर धारक द्वारा अपने शेयर की बिक्री से प्राप्त मुद्रा पूँजी भी इसके पास ही जाने वाली है। उससे देश या देश की जनता को क्या फ़ायदा होगा – यह सिर्फ नौटंकी सिवाय कुछ और नहीं हो सकता

जहाँ तक इस सौदे से दलाल पूँजीपति वर्ग द्वारा अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक देने की बात है तो सच्चाई यह है कि वालमार्ट के लिए भारतीय बाज़ार के दरवाज़े कई वर्ष पहले ही खुल चुके हैं –  2011-12 में वह सुनील मित्तल के भारती समूह की साझेदारी में ईजीडे नाम से काफ़ी खुदरा बिक्री स्टोर खोल भी चुकी है और फिर उस साझेदारी से बाहर भी निकल चुकी है। ये ईजीडे स्टोर अब किशोर बियानी के फ़्यूचर ग्रुप के मालिकाने में हैं। अब वालमार्ट ख़ुद 21 थोक बिक्री स्टोर चलाती है और उसके लगभग एक लाख से भी अधिक ग्राहक ठीक वही किराना दुकान वाले हैं जिनकी जीविका की हिफ़ाज़त के नाम पर बहुत से लोग भारत में वालमार्ट का विरोध करते हैं।

वैसे तो बीजेपी सरकार खुदरा बिक्री में 51% विदेशी निवेश की भी छूट पहले दे चुकी है, ऑनलाइन कारोबार की अनुमति तो पहले ही थी, और वालमार्ट या अन्य कोई भी विदेशी कम्पनी इन सबके अन्तर्गत भारत में कारोबार कर सकती है, जैसे अमेज़न और टेस्को पहले से ही कर रही हैं। ऊपर रखी गयी बात का अर्थ वालमार्ट के पक्ष में तर्क देना या उसे भारतीय जनता के लिए हितकारी बताना नहीं है, बल्कि यह है कि वालमार्ट हो या अमेज़न या सोफ़्टबैंक या टेस्को – इन सबको भारत में निवेश के लिए प्रवेश देना या रोक लगाना यह भारतीय पूँजीपति वर्ग के अपने वक्ती हित, व्यक्तिक हित और वैश्विक पूँजी के साथ साझेदारी की सौदेबाजी में होने वाले लेन-देन पर निर्भर करता है।

इसलिए यह सौदा अपने आप में कोई ऐसी मौलिक परिवर्तनकारी घटना नहीं है जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था और राजसत्ता के चरित्र को परिभाषित करने की बात की जाये। अगर इस तरह के अलग-अलग सौदों से इन सम्बन्धों को परिभाषित किया जाये, तब टेलीकॉम के क्षेत्र में एक दशक या उससे पहले भारत में निवेश करने वाली वोडाफोन, यूनीनोर, एमटीएस, सिस्टेमा, आदि सबके भारत से बाहर हो जाने या भारतीय पूँजीपतियों द्वारा उन्हें ख़रीद लिए जाने से क्या निष्कर्ष निकाला जायेगा या जा सकता है?

फिर आखि़र इस सौदे को कैसे समझा जाये? उद्योग की भाँति व्यापार-वितरण के क्षेत्र में भी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के नियम से छोटी पूँजी प्रतियोगिता में बड़े पूँजीपति, विशेष तौर पर वित्तीय पूँजी के साथ गँठजोड़ से भारी मात्रा में पूँजी निवेश की क्षमता वाली संयुक्त शेयरपूँजी वाली कम्पनियों के मुक़ाबले नहीं ठहर सकतीं और उनका दिवालिया होकर या बड़ी पूँजीपति कम्पनियों द्वारा अधिग्रहित होकर समाप्त होते जाना एक स्वाभाविक ऐतिहासिक प्रक्रिया है।

ई-कॉमर्स में अत्याधुनिक तकनीक के अधिकाधिक प्रयोग और लाभ कमा सकने के लिए दीर्घावधि तक इन्तज़ार इस प्रक्रिया को और भी तेज़ करते हैं, इसलिए अधिकांश ई-कॉमर्स स्टार्ट अप या तो दिवालिया हो जाते हैं या जल्द ही और बड़ी ई-कॉमर्स कम्पनी में विलय हो जाते हैं। जिनके पास वित्तीय पूँजी से गँठजोड़ के कारण घाटे को लम्बे वक़्त तक खपाते जाने और तकनीक, लम्बी उत्पाद सूची के संभरण और वितरण की विस्तृत और जटिल व्यवस्था में निवेश करते जाने के लिए अत्यधिक मात्रा में पूँजी उपलब्धि सुनिश्चित हो।

मार्क्स ने जैसा बताया था – उद्योग में चर पूँजी (श्रम शक्ति के प्रयोग) की तुलना में स्थिर पूँजी (मशीन, तकनीक, आदि) के अनुपात के बढ़ते जाने से कुल मुनाफ़ा तो बढ़ता है, किन्तु निवेश की गयी पूँजी की मात्रा पर मुनाफ़े की दर गिरती जाती है। इसलिए शेयर पूँजी पर लाभांश हो चाहे बैंक में जमा पर प्राप्त ब्याज़ की दर (आखि़र वह भी तो उद्योग द्वारा हस्तगत अधिशेष मूल्य से ही आता है) घटती जाती हैं।

इसलिए बीजेपी और उसकी भोंपू मीडिया ऐसा सिर्फ इसलिए शोर मचाती  है ताकि जनता भ्रम में आ जाए और जनता को लगे कि बीजेपी को इनके मुद्दों से सरोकार है साथ ही उनके द्वारा चलाये गए दमनकारी योजनाओं के तरफ आम जनता की नजर न जा सके। यदि आप पैनी नजर से किसी भी मुद्दे को देखें तो आप इस नतीजे पर पहुंचेगे कि इनको जनता के जरूरियात सवालों से कोई लेना-देना नहीं होता, यदि सरोकार है तो सिर्फ ये कि येन-केन-प्रकरेण सत्ता तक पहुँच जाय और पूंजीपतियों या बड़े कॉर्पोरेट घरानों की चाकरी कर मलाई खाते रहें। सत्ता में हमेशा रहने के लिए ये इस प्रकार का प्रोपगेंडा का शिलान्यास करते रहते हैं।

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