रांची रिम्स की ऑक्सीजनरहित व्यवस्था – खुद ही वेंटिलेटर पर

 

झारखंड में एक तरफ जहाँ आम लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने का हवाला देते हुए केंद्र सरकार ने 16 मई, बुधवार को देवघर में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निर्माण होने की  मंजूरी दी है और इसके लिए  1103 करोड़ रुपये मंजूर भी कर लिये गये हैं। ये और बात है की अभी इस परियोजना के लिए किसकी कितनी जमीने हड़पे जाने का खेल होगा ये तो अभी समय के गर्भ में दबा है, क्योकि यहाँ की जनता पहले ही सरकार की लैंड बैंक की नीतियों से रोड पर आ चुकी है। इसलिए इन खेलों का खुलासा तो अब भविष्य में ही हो पायेगा क्योकि इस महत्वाकांक्षी योजना को पूरा होने में अभी लगभग तीन साल का लम्बा वक्त लगना है। वहीँ दूसरी तरफ कहानी यह है कि अभी झारखण्ड प्रदेश में मौजूद सबसे बड़े अस्पताल के रूप में रिम्स है जिसकी फ़ॉरेंसिक विभाग की रिश्वत खोरी की घटना को अभी चंद दिन भी नहीं हुए कि यहाँ के प्रशासन की एक और बड़ी लापरवाही की घटना ने दस्तक दे कर जनता को झकझोर दिया है। झारखण्ड की जनता समझ नहीं पा रही है कैसे यहाँ की सरकार ने राज्य की व्यवस्था को मजाक बना के रख छोड़ा है। रोज सिर्फ विकास के नाम पर हवाई किले बनाती है परन्तु ज़मीनी हक़ीकत में ‘टाई-टाई फीस’ नजर आती है।

झारखण्ड का यह अस्पताल पर्याप्त सुविधाएं के मामले में पहले से ही अन्य राज्यों के सरकारी अस्पतालों की तुलना में पिछड़ा हुआ है और जो मौजूद स्वास्थ्य सुविधाएं है वह भी यहाँ के लापरवाह कर्मचारियों की मेहरबानी से आम गरीब मरीजों तक समय पर नहीं पहुच पा रही है। कभी विद्युत् सेवा नहीं होने के नाम पर ऑपरेशन टालते देखा गया तो कभी स्ट्रेचर के आभाव में मरीजों को घसीटते देखा गया। कुल मिला कर हमें यह कहना पड़ता है कि रिम्स की व्यवस्थाएं सुधरने का नाम नहीं ले रही हैं या फिर बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है कि झारखण्ड की सरकार यहाँ के गरीब मरीजों के प्रति गंभीर नहीं दिख रही है। 16 मई को ऐसा ही मामला फिर सामने आया जिसमे अस्पताल के इमरजेंसी के बाहर दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल रामगढ़ निवासी शंभु कुमार को ऑक्सीजन की अति आवश्यकता थी पर उसे ये मामूली सुविधा भी समय पर नहीं मिल पायी। काफी देर तक उसके परिजन ऑक्सीजन सिलिंडर के लिए इमरजेंसी वार्ड के चक्कर लगाते रहे। अस्पताल का एक कर्मचारी ऑक्सीजन का सिलिंडर लेकर पहुंचा भी तो वह भी खाली थी। काफी अंतराल के उपरांत परिजनों के अर्जु-मिन्नत के बाद एक भरा हुआ सिलिंडर मरीज को उपलब्ध कराया गया, परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में तक़रीबन एक घंटे का समय लग गया और तब तक मरीज को इमरजेंसी के बाहर एंबुलेंस में उसी स्थिति में ही लेटे रहना पड़ा। ऐसे में  रिम्स के कर्मचारियों की लापरवाही से मरीज की जान खतरे में पड़ सकती थी।

पहले तो इस घटना की लीपा-पोती करने का प्रयास किया गया परन्तु वहां उपस्थित पत्रकारों के द्वारा इस घटना को तूल दिए जाने बाद बात उपर तक पहुँचते-पहुँचते डिप्टी डायरेक्टर गिरिजाशंकर  प्रसाद तक भी पहुँच गयी। उन्होंने  आनन् फानन में स्टोर के मेडिकल अफसर डॉ रघुनाथ प्रसाद को तलब किया और पूछा, क्या इमरजेंसी में ऑक्सीजन सिलिंडर नहीं रहता है? मेडिकल अफसर और अन्य ने जो जवाब दिए वह गौर करने वाला था। उन्होंने कहा, “नहीं सर हमारे पास इमरजेंसी वार्ड में पर्याप्त मात्रा में सिलिंडर हैं”। इसके उपरान्त इसी सन्दर्भ में इमरजेंसी वार्ड से दो नर्सों को भी बुलाया गया। उन्होंने डिप्टी डायरेक्टर को अवगत कराया कि यहाँ हमारे पास मात्र तीन ऑक्सीजन सिलिंडर मौजूद हैं। हमारे ट्रॉली मैन के द्वारा गलत रखरखाव के कारण ऑक्सीजन सिलिंडर में मापक यंत्र ही नहीं रहता है जिस कारण हम सिलेंडर में भरे गैस की मात्र सुनिश्चित नहीं कर पाते हैं। स्टोर के मेडिकल अफसर डॉ रघुनाथ ने बताया कि मापक यंत्र 2000  रूपये में आता है, लेकिन हर दो दिन में कर्मचारियों की लापरवाही के कारण टूट जाता है। अब आप इनके दिए हुए स्पष्टीकरण से भली भांति समझ सकते हैं कि यहाँ की पूरी व्यवस्था गरीब मरीजों के प्रति कितनी संवेदनशील और जिम्मेदार है। बहरहाल असल बात यह है कि यह सब सरकार की शह पर होता है।

भारत के संविधानानुसार देश के हर नागरिक को स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए। सही समय पर सही अस्पताल, डॉक्टर और इलाज मुहैया हो यह जि़म्मेदारी भी सरकार की ही है। मानकों के अनुसार हमारे देश में हर 30000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और हर सब-डिविज़न पर 100 बेड वाला एक सामान्य अस्पताल होना चाहिए, लेकिन यह भी सिर्फ़ काग़ज़ों पर ही है और यह काग़ज़ों के मानक भी सालों पुराने हैं जिनमें कोई बदलाव नहीं किया गया है। बदलाव करना तो दूर की बात है, इन्हीं मानकों को सही ढंग से लागू नहीं किया जाता, जबकि पिछले दो दशक में कुकुरमुत्तों की तरह प्राइवेट और कॉर्पोरेट अस्पताल ज़रूर उग आये हैं, जिनमें जाकर मरीज या तो बीमारी से मर जाता है या फिर इनके भारी-भरकम ख़र्चे की वजह से। अब सरकार एक और शिगूफ़ा लेकर आयी है, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप। मतलब सरकार अब प्राइवेट कम्पनियों के साथ सहकारिता करेगी और लोगों को अन्य सेवाओं के साथ स्वास्थ्य सेवाएँ भी उपलब्ध करवायेगी। यह शिगूफ़ा और कुछ नहीं, बल्कि पुष्पा सेल्स जैसी कम्पनियों को मुनाफ़ा देने की क़वायद है, ताकि ये पैसे बना सकें और समय आने पर इनकी पार्टियों को मोटी रकम चंदे के रूप में दे सके।

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