दिशोम गुरु शिबू सोरेन : भारत रत्न की मांग जायज क्यों?

दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जीवन एक अनवरत संघर्ष, बलिदान और समर्पण की गाथा है। उन्होंने आदिवासियों को महाजनी और सूदखोरी प्रथा के चंगुल से मुक्त कराया, उन्हें संगठित कर एक अलग राज्य के निर्माण के सपने को साकार किया, जो भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर है।

रांची : झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और आदिवासियों के सर्वमान्य नेता, दिशोम गुरु शिबू सोरेन के निधन के उपरांत उनके पैतृक गांव नेमरा में आयोजित श्राद्ध भोज में लाखों की संख्या में लोगों का उमड़ना एक ऐतिहासिक घटना थी। भोर से ही नेमरा में लोगों का तांता लगना शुरू हो गया था और यह जनसैलाब उनके प्रति झारखंड की जनता के अगाध प्रेम, सम्मान और असीम श्रद्धा का प्रमाण था।

भारत रत्न की मांग जायज क्यों

इस तरह की विशाल जनभावना किसी नेता के प्रति असीम सम्मान को दर्शाती है और राष्ट्रीय चेतना में उनके गहरे प्रभाव को रेखांकित करती है। यह आयोजन एक श्रद्धांजलि मात्र नहीं था, बल्कि एक ऐसे जननायक के प्रति लोगों की कृतज्ञता का प्रकटीकरण था, जिन्होंने अपना पूरा जीवन उनके हक और अधिकारों के लिए समर्पित कर दिया।

शिबू सोरेन को उनके जीवनकाल में ही “दिशोम गुरु” और “गुरुजी” जैसी उपाधियाँ मिलीं, जो उनकी असाधारण स्वीकार्यता को दर्शाती हैं। संथाली भाषा में ‘दिशोम गुरु’ का अर्थ ‘देश का गुरु’ या ‘देश का मार्गदर्शक’ है । यह उपाधि उन्हें इसलिए दी गई क्योंकि उन्होंने आदिवासियों को संगठित कर न केवल उनके आत्म-सम्मान को जगाया, बल्कि उनकी आवाज को राष्ट्रीय स्तर पर सशक्तता के साथ प्रस्तुत किया । यह रिपोर्ट शिबू सोरेन के जीवन, उनके संघर्षों और भारतीय लोकतंत्र में उनके अद्वितीय योगदान का एक गहन मूल्यांकन प्रस्तुत करती है, जिसका उद्देश्य यह स्थापित करना है कि वे भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ के पूर्णतः पात्र हैं।

एक योद्धा का उद्भव: त्रासदी से संघर्ष तक

शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी, 1944 को तत्कालीन बिहार के रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके पिता शोभाराम सोरेन एक शिक्षक थे और उनकी माता सोनामुनी सोरेन थीं। अपनी प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने गोला हाई स्कूल, हजारीबाग में प्राप्त की, लेकिन पिता की हत्या और परिवार की आर्थिक तंगी के कारण वे दसवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए।


उनकी जिंदगी का सबसे निर्णायक मोड़ 1957 में आया, जब वे मात्र 13 वर्ष के थे। उनके पिता की हत्या सूदखोरों और महाजनों द्वारा कर दी गई थी, क्योंकि वे सूदखोरी और शराबबंदी जैसी प्रथाओं का विरोध करते थे। यह व्यक्तिगत त्रासदी उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट बनी और यहीं से उनके सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई । उनकी राजनीति में प्रविष्टि किसी पारंपरिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित नहीं थी, बल्कि एक व्यक्तिगत अन्याय के खिलाफ उपजे आक्रोश और अपने समुदाय के लिए न्याय की गहन प्रतिबद्धता का परिणाम थी।

यह कारक उन्हें उन नेताओं की श्रेणी में रखता है जिनका उदय व्यक्तिगत बलिदान और सार्वजनिक सेवा के एक गहरे नैतिक भाव से हुआ था। इस प्रकार, उनका संघर्ष केवल सत्ता प्राप्ति का नहीं था, बल्कि अपने समाज के उत्थान और उसके लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का था, जो भारत रत्न के मूल दर्शन के अनुरूप है।

पिता की हत्या के बाद, शिबू सोरेन ने 18 वर्ष की आयु में 1962 में ‘संथाल नवयुवक संघ’ की स्थापना की। इसका उद्देश्य आदिवासी युवाओं को सामाजिक परिवर्तन के लिए एकजुट करना था। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ‘सनोत संथाल समाज’ की भी स्थापना की, जिसके माध्यम से उन्होंने आदिवासियों को संगठित किया और उनके हितों के लिए संघर्ष की रणनीति तैयार की। यह शुरुआती प्रयास उनके जीवन की दिशा को स्पष्ट करता है, जहां उनका लक्ष्य आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध एक मजबूत सामाजिक चेतना का निर्माण करना था।

सामाजिक न्याय के पुरोधा: ‘जल, जंगल, जमीन’ की लड़ाई

शिबू सोरेन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान आदिवासियों के ‘जल, जंगल, जमीन’ पर उनके अधिकारों की लड़ाई थी। 1960 और 1970 के दशक में झारखंड में महाजनी और सूदखोरी प्रथा अपने चरम पर थी, जिससे आदिवासियों की जमीनें धोखे से हड़पी जा रही थीं। इस शोषण के खिलाफ शिबू सोरेन ने ‘धन काटो आंदोलन’ चलाया । यह आंदोलन एक अद्वितीय रणनीति पर आधारित था, जिसमें महिलाएं हसिया लेकर जमींदारों के खेतों से फसलें काटती थीं, जबकि पुरुष तीर-कमान के साथ उनकी सुरक्षा करते थे। यह सिर्फ एक विरोध प्रदर्शन नहीं था, बल्कि आदिवासी पहचान, आत्म-सम्मान और भूमि पर उनके अधिकार की पुनर्स्थापना थी । इस आंदोलन ने आदिवासियों को शोषण के खिलाफ लड़ने का साहस दिया और उनकी सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन किया।

यह संघर्ष विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन’ और जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति आंदोलन’ जैसे अन्य भारत रत्न प्राप्तकर्ताओं के सामाजिक सुधार आंदोलनों के समान है। यह शिबू सोरेन के संघर्ष को एक व्यापक राष्ट्रीय संदर्भ प्रदान करता है, जहां उनका योगदान केवल क्षेत्रीय राजनीति तक सीमित नहीं था, बल्कि स्वतंत्रता के बाद भारत में सामाजिक न्याय की सबसे मजबूत लड़ाइयों में से एक था। उन्होंने आदिवासियों को आर्थिक और सामाजिक गुलामी से बाहर निकालने का प्रयास किया और एक ऐसी ग्रामीण-आधारित अर्थव्यवस्था का मॉडल समझाया जो लोगों को आत्मनिर्भर बना सके।

सामाजिक और आर्थिक सुधार के साथ-साथ, शिबू सोरेन ने आदिवासियों के बीच ‘त्वरित न्याय की अदालतें’ स्थापित कीं। ये अदालतें शोषित आदिवासियों को जमींदारों और सूदखोरों के खिलाफ त्वरित न्याय प्रदान करती थीं, जो उस समय की कानूनी प्रक्रिया में संभव नहीं था। उन्होंने नशामुक्ति (शराबबंदी) और शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए भी अभियान चलाए। उन्होंने गरीब छात्रों को लालटेन तक बांटे ताकि वे रात में पढ़ सकें, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे शिक्षा को सामाजिक और आर्थिक मुक्ति का एक आवश्यक साधन मानते थे। उनका यह योगदान राजनीति से परे है और यह भारत रत्न के लिए निर्धारित ‘उच्च लोक सेवा’ के मानदंडों को पूरी तरह से पूरा करता है।

पृथक राज्य के स्वप्न से झारखंड के शिल्पकार तक

शिबू सोरेन का जीवन और उनकी राजनीति झारखंड राज्य के गठन के आंदोलन से अविभाज्य रूप से जुड़ी हुई है। 1972 में, उन्होंने बंगाली मार्क्सवादी नेता ए.के. रॉय और कुर्मी नेता बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की। पार्टी का मुख्य लक्ष्य आदिवासी भूमि अधिकारों की रक्षा करना और बिहार से एक अलग झारखंड राज्य की मांग करना था।

झारखंड राज्य आंदोलन के सशक्त नेता के रूप में, शिबू सोरेन ने दशकों तक इस लड़ाई का नेतृत्व किया। इस आंदोलन के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता का एक बड़ा प्रमाण वह था जब उन्होंने अलग राज्य के विरोध के कारण लालू प्रसाद यादव के साथ अपने राजनीतिक संबंध तोड़ लिए। यह निर्णय उनके लिए राजनीतिक रूप से जोखिम भरा था, लेकिन उन्होंने आदिवासियों की आकांक्षाओं को सर्वोपरि रखा।

अलग राज्य के गठन से पहले झारखंड एरिया ऑटोनॉमस काउंसिल (JAAC) का गठन एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जिसके लिए शिबू सोरेन ने अथक प्रयास किया। यह परिषद झारखंड के लोगों को उनकी प्रशासनिक व्यवस्था में अधिकार और भागीदारी देने वाली पहली संस्था थी। यह परिषद सीधे तौर पर राज्य गठन के मार्ग को प्रशस्त करने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी थी। झारखंड राज्य का गठन सिर्फ एक भौगोलिक विभाजन नहीं था, बल्कि यह दशकों से चल रहे आदिवासी पहचान, संस्कृति और स्वायत्तता के संघर्ष की परिणति थी।

शिबू सोरेन ने इन सभी भावनाओं को एक संगठित राजनीतिक आंदोलन में एकीकृत किया, जो भारत के संघीय ढांचे के भीतर एक अनूठी पहचान की लड़ाई थी। यह कार्य एक ऐसे नेता की दूरदर्शिता और राजनीतिक कौशल को दर्शाता है, जिसने एक बड़े वंचित समुदाय की आकांक्षाओं को शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से पूरा किया, जिससे भारत का लोकतंत्र और अधिक समावेशी बन सका।

एक राजनेता का बहुआयामी सफर: संसद से सचिवालय तक

शिबू सोरेन का राजनीतिक सफर लंबा और उतार-चढ़ाव भरा रहा। उन्होंने अपने जीवनकाल में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया, लेकिन उनकी सबसे बड़ी ताकत जनता के बीच उनकी लोकप्रियता और स्वीकृति रही।
नीचे दी गई तालिका उनके राजनीतिक करियर की प्रमुख उपलब्धियों को दर्शाती है:

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उनके राजनीतिक करियर की एक दिलचस्प विशेषता यह है कि वे तीन बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन उनका कोई भी कार्यकाल पूरा नहीं हो सका । कुछ लोग इसे उनकी राजनीतिक अस्थिरता के रूप में देख सकते हैं, लेकिन यह उनके जन-नेता के रूप में उनकी छवि को और मजबूत करता है। यह दर्शाता है कि उनकी असली ताकत राजनीतिक पद में नहीं, बल्कि जनता के बीच थी, जिसने उन्हें बार-बार संसद तक पहुंचाया। वे एक पारंपरिक राजनेता से अधिक एक आंदोलनकारी और प्रतीक थे, जिनकी उपस्थिति ही झारखंड की राजनीति को आकार देने के लिए पर्याप्त थी । उनके छोटे-छोटे कार्यकाल भी झारखंड की राजनीतिक चेतना और उसके भविष्य को आकार देने में निर्णायक थे।

विवाद और शुचिता: एक संतुलित दृष्टि

एक जननायक के रूप में शिबू सोरेन का जीवन विवादों से परे नहीं था, और एक निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए उन पर लगे आरोपों की समीक्षा करना आवश्यक है। उनके जीवन के दो प्रमुख न्यायिक मामले चिरुडीह नरसंहार और निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या से संबंधित थे।

1975 में चिरुडीह गांव में आदिवासियों के एक हिंसक आंदोलन में 11 लोगों की मौत के आरोप उन पर लगे । इसी तरह, 1994 में अपने निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या के मामले में उन्हें 2006 में दोषी ठहराया गया था । इन मामलों के अलावा, 1993 में नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए कथित ‘कैश फॉर वोट’ सौदे में भी उनका नाम आया।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इन सभी प्रमुख मामलों में, उन्हें बाद में न्यायिक प्रक्रिया द्वारा बरी कर दिया गया। उन्हें शशिनाथ झा हत्या मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2007 में बरी कर दिया था, और चिरुडीह नरसंहार मामले में 2008 में बरी किया गया। न्यायिक बरी होना एक महत्वपूर्ण बिंदु है। यह दर्शाता है कि कानूनी रूप से वे निर्दोष थे। इन आरोपों को उनके चरित्र की कमजोरी के बजाय, उनके द्वारा चलाए गए संघर्षों की प्रकृति के रूप में देखा जाना चाहिए। एक हिंसक और कठिन आंदोलन का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति पर ऐसे आरोप लगना स्वाभाविक है। भारत की न्यायपालिका द्वारा उन्हें दोषमुक्त किया जाना उनकी शुचिता को स्थापित करता है और उनके भारत रत्न की पात्रता के पक्ष में एक मजबूत तर्क प्रदान करता है।

भारत रत्न: राष्ट्रीय सम्मान की पात्रता का विस्तृत विश्लेषण

भारत रत्न सम्मान ‘कला, साहित्य, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा और खेल’ के क्षेत्र में ‘सर्वोच्च क्रम की लोक सेवा’ को पहचानने के लिए दिया जाता है। शिबू सोरेन का जीवन और कार्य इस मानदंड को कई मायनों में पूरा करते हैं, और उन्हें यह सम्मान देना भारतीय लोकतंत्र के एक अनूठे अध्याय को मान्यता देना होगा।

शिबू सोरेन के योगदान की तुलना हाल ही में सम्मानित किए गए सामाजिक न्याय के पुरोधाओं से की जा सकती है। जिस प्रकार कर्पूरी ठाकुर को पिछड़ों और वंचितों के उत्थान के लिए मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, उसी प्रकार शिबू सोरेन ने आदिवासियों के भूमि, जंगल और सम्मान के लिए संघर्ष किया ।

नीचे दी गई तालिका में, शिबू सोरेन के योगदान की तुलना अन्य भारत रत्न प्राप्तकर्ताओं के साथ की गई है:

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उपरोक्त तुलनात्मक विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि शिबू सोरेन का योगदान सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वाले अन्य भारत रत्न विजेताओं के समान है। उनका संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक था। उन्होंने एक पूरी सभ्यता और पहचान को शोषण से बचाने और उसे राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने का काम किया। यह एक ऐसा योगदान है जो भारत के संघीय ढांचे को अधिक समावेशी बनाता है और हाशिए पर पड़े समुदायों को राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा में लाने का मार्ग प्रशस्त करता है ।

झारखंड की जनता और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा उन्हें भारत रत्न देने की सामूहिक मांग भी इस बात का प्रमाण है कि उनका योगदान कितना गहरा और व्यापक था। शिबू सोरेन को भारत रत्न देना केवल एक व्यक्ति का सम्मान नहीं होगा। यह भारत की उस जनजातीय आत्मा का सम्मान होगा, जो सदियों से उपेक्षा का शिकार रही है। यह उन तमाम लोगों को सम्मानित करेगा जो जंगलों और पहाड़ों से उठकर अपने हक की लड़ाई लड़ते रहे हैं।

निष्कर्ष: एक अमर विरासत

शिबू सोरेन का जीवन एक अनवरत संघर्ष, बलिदान और समर्पण की गाथा है। एक व्यक्तिगत त्रासदी से प्रेरित होकर उन्होंने जो आंदोलन शुरू किया, वह लाखों लोगों की आशा और पहचान का प्रतीक बन गया। उन्होंने न केवल आदिवासियों को महाजनी और सूदखोरी प्रथा के चंगुल से मुक्त कराया, बल्कि उन्हें संगठित कर एक अलग राज्य के निर्माण के सपने को साकार किया, जो भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर है।

उनकी विरासत ‘जल, जंगल, जमीन’ के संरक्षण, जनजातीय अस्मिता की रक्षा और सामाजिक न्याय की वकालत में जीवित है। उनके संघर्षों और आदर्शों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग भी इस बात का प्रमाण है कि वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।

शिबू सोरेन को भारत रत्न प्रदान करना भारत के लोकतंत्र के सबसे दूरगामी आंदोलनों में से एक को मान्यता देना होगा। यह एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि लाखों शोषित लोगों के संघर्ष और आकांक्षाओं का सम्मान होगा, जिन्होंने अपने ‘दिशोम गुरु’ के नेतृत्व में अपनी पहचान और अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी।

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