इतने बड़े केन्द्रीय मैकेनिज्म के बावजूद आदिवासी समुदाय सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व पृथक पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है. अपनी भाषा, शिक्षा, वनोपज पर आधारित आय स्त्रोत व संवैधानिक अधिकार पाने की लड़ाई लड़ रहा है.
रांची : आदिवासी समाज देश में सबसे अधिक त्रासदिय व नारकीय जीवन जीने को विवश है. दलित के बाद यह वह दूसरा समुदाय है जो सबसे अधिक संख्या में विस्थापित है. सीएनटी-एसपीटी जैसे प्रभावी क़ानून के बावजूद लैंड बैंक में इनकी ज़मीने अधिक है. यह समुदाय न केवल सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व पृथक पहचान के लिए वर्षों से संघर्ष कर रहा है. अपनी भाषा, शिक्षा, वनोपज पर आधारित आय स्त्रोत व अपने संवैधानिक अधिकार को पाने की भी लड़ाई लड़ रहा है.
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु न केवल राष्ट्रपति हैं देश में महिला शक्ति की सशक्त पहचान भी हैं. लेकिन, सामन्ती राजनीति के अक्स में संविधान के अक्षरों का अवहेलना कर देश के नए संसद भवन का उद्घाटन से एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति को, विपक्षी दलों के बहिष्कार के बावजूद वंचित किया जाना, न केवल बीजेपी की तानाशाही दर्शाता है, 21वीं सदी के मनुवाद विचार की पराकाष्ठा को भी दर्शाता है. और आदिवासियों के नारकीय जीवन का स्पष्ट उदाहरण पेश करता है.
क्या झारखण्ड के सीएम हेमन्त सोरेन के सवाल इसी सच को उजागर नहीं करते है कि आदिवासी समाज के संदर्भ में इतने बड़े केंद्र, राज्य सरकार के मंत्रालय तथा विभाग के कार्य करने के बावजूद आदिवासीय की स्थिति दयनीय है. आदिवासियों को उनके पैरों पर खड़ा होने के लिए, उनके आय के स्रोत बढ़ाने के लिए तमाम चिंतन-मंथन और कार्य प्रभावी दिखता है, यह हम कह नहीं सकते हैं. मसलन, आज भी इस समुदाय को दो वक्त की रोटी जुटाने में जद्दोजहद करनी पड़ती है.