राज्यपालों के फैसलों पर उठ रहे सवाल, मोदी सरकार पर विपक्ष का सीधा निशाना

तमिलनाड़ु, महाराष्ट्र और झारखण्ड जैसे राज्यों में राज्यपाल की कार्यशैली पर उठे सवाल, सुप्रीम कोर्ट के फटकारों से भी केंद्र ने नहीं लिया सबक, पूर्व राज्यपाल भी लगा चुके हैं गंभीर आरोप.

रांची : भारत के संवैधानिक मान्यताओं के तहत जनता के द्वारा राज्यपाल को महामहिम कहने की परम्परा रही हैं. राज्यपाल का काम राज्य सरकार, चाहे वह केंद्र में बैठी पार्टी की हो या विपक्षी पार्टियों की हो, की शासन में सही मार्गदर्शन करना होता है. लेकिन, केन्द्र की मोदी सत्ता के अक्स में देश भर के कई राज्यपालों का अपना विवेक दिल्ली में गिरवी रख कर राज्यों के राजभवनों में रहने का सच, गैर बीजेपी सरकारों के आईने में उभरा है. 

राज्यपाल के फैसलों पर उठ रहे सवाल, मोदी सरकार पर विपक्ष का सीधा निशाना

वर्तमान में राज्यपाल की शिक्तियां व विवेक संवैधानिक बाध्यताओं से परे केंद्र के हित में इस्तेमाल करने का सच लिए हैं. वर्ष 2014, मोदी सरकार में राज्यपालों के बदलती कार्यशैली का सच लगभग सभी गैर भाजपा शासित राज्यों के सरकारों के बयानों में दिखी है. तमिलनाडु, झारखण्ड, महाराष्ट्र जैसे राज्य तो फेहरिस्त में प्रमुखता से शामिल हैं. यह सच मोदी सरकार में मनोनीत राज्यपाल के आरोपों में भी उभरा है. फिर भी केंद्र सरकार खुद को पाक साफ़ बताने के जुगत में ही दिखी है.

तमिलनाडु में बिना कानूनी सलाह के मंत्री को हटाया, सियासत तेज तो गृह मंत्रालय की सलाह पर बदला फैसला 

राज्यपाल आरएन रवि द्वारा लिए गए विचित्र फैसले ने पूरे देश के सियासत व जनता को स्तब्ध कर तब दिया. जब राज्यपाल ने यकायक तमिलनाडु सरकार में मंत्री वी. सेंथिल बालाजी को बर्खास्त करने की घोषणा कर दी. ऐसे में तमाम विपक्षी पार्टियां राज्यपाल सहित मोदी सरकार पर बिफर पड़े. विपक्ष के द्वारा दोटूक आरोप लगाया गया कि बिना कोई कानूनी सलाह के किसी सरकार के मंत्री को हटाने का फैसला राज्यपाल के द्वारा कैसे लिया जा सकता है. 

हंगामें से बचने के मद्देनजर आननफानन महज पांच घंटे में ही राज्यपाल नेइस तानाशाही फैसले को वापस भी ले लिया. फैसला बदलने की मामले में राज्यपाल के द्वारा मुख्यमंत्री स्टालिन को पत्र लिखकर बताया कि केंद्रीय गृह मंत्री की सलाह पर उनके द्वारा यह फैसला अत्काल प्रभाव से स्थगित किया गया है. लेकिन, इस घटना ने जनता के समक्ष राज्यपाल व केंद्र सरकार की गठजोर की भूमिका को लेकर एक स्पष्ट आलोक्तान्त्रिक तस्वीर जरुर उकेर दी है. 

झारखण्ड राज्य को भी अस्थिर करने की हर संभव कोशिश, विधानसभा अध्यक्ष ने पूछा -किसके इशारे पर काम कर रहा राजभवन

झारखण्ड में भी हेमन्त सरकार के द्वारा राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा पर कथित आरोप लगया जाता रहा है कि राजभवन के मार्फत सरकार को लगातार डिस्टर्ब किया जा रहा है. खनन पट्टा मामले में सीएम हेमन्त सोरेन की विधानसभा सदस्यता रद्द करने को लेकर केंद्रीय निर्वाचन आयोग से मांगी राय व सुझाव को आज तक राजभवन से सार्वजनिक नहीं किया गया है. लेकिन इसके अक्स में विपक्ष के द्वारा राज्य में अस्थिरता का दौर लगातार तीन सालों से जारी है. 

तमाम परिस्थियों के बीच झारखण्ड विधानसभा अध्यक्ष रविंद्र नाथ महतो के द्वारा राजभवन के कार्यशैली पर सवाल उठाया गया. झारखण्ड विधानसभा के विशेष सत्र में पारित 1932 के खतियान और आरक्षण बिल को राजभवन से वापस लौटाने पर विधानसभा अध्यक्ष के द्वारा गंभीर सवाल उठाया गया है. उनके द्वारा कहा गया है कि राज्यभवन के इस कदम से स्पष्ट है कि वह किसी के इशारे पर काम कर रहा है. आखिर वह किसके इशारे पर काम कर रहा है, यह हमें जानना होगा.

2019 के बाद अब 2023 में महाराष्ट्र में राजभवन की तेजी में भी यही तथ्य दिखे 

महाराष्ट्र, ज्ञात हो, वर्ष 2019 में तत्कालीन राज्यपाल, भगत सिंह कोश्यारी के द्वारा नियम-क़ायदों को किनारे रखकर चुपके से देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दिलायी गई थी. अब एनसीपी के बागी विधायकों को आनन-फानन में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए गठबंधन सरकार में शामिल कर दिया गया. ऐसा करने वाले राज्यपाल रमेश बैस हैं. रमेश बैस वहीं राज्यपाल हैं, जिन्होंने झारखण्ड में एटम बम गिराने जिसे बयान दिए थे. जिसपर झामुमो ने कड़ी आपति जतायी थी. 

मोदी सरकार को ऐसे मामलों में लग चुका है सुप्रीम कोर्ट की फटकार 

राज्यपाल की कार्यशैली को लेकर मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने कई बार फटकार लगायी है. इसके बावजूद केंद्र सरकार ने इससे कोई सबक नहीं लिया. दो मामले तो काफी चर्चा में भी रहे हैं. 

पहला – मोदी सरकार में किसी राज्य सरकार को अस्थिर करने और अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल कर राष्ट्रपति शासन लगाने की परम्परा की शुरुआत दिसंबर 2014 में अरुणाचल प्रदेश से हुई. 

दलबदल के ज़रिए सरकार को अस्थिर किया गया. मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने फैसले में राज्यपाल के रवैये पर तल्ख़ टिप्पणियां की और राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश को असंवैधानिक करार दिया. साथ ही वहां की तत्कालीन कांग्रेस सरकार को फिर से बहाल करने का आदेश दिया.

हरीश रावत नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार मामला 

दूसरा – मार्च 2016, कांग्रेस के 9 विधायक बागी होकर भाजपा में शामिल हुए. इससे कांग्रेस नेता हरीश रावत नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई. सीएम हरीश रावत को बहुमत साबित करने के लिए पांच दिनों का वक़्त दिया गया. लेकिन बहुमत का परीक्षण से पहले ही केंद्र सरकार ने राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी गई थी. 

तत्कालीन राष्ट्रपति रहे प्रणब मुखर्जी के द्वारा सिफारिश को स्वीकार भी कर लिया गया था. मामला नैनीताल हाई कोर्ट में पहुंचा. हाई कोर्ट ने भी राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को असंवैधानिक करार दिया. हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ केंद्र की मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी लेकिन वहां भी उसके नयी परम्परा को निराशा हाथ लगी. और कांग्रेस की हरीश रावत सरकार फिर से बहाल हुई. 

सत्यपाल मलिक के आरोपों से भी उठे कई गंभीर सवाल 

मोदी सरकार की कार्यशैली को जनता के सामने लाने में भाजपा शासन में राज्यपाल रह चुके सतपाल मलिक भी पीछे नहीं रहे हैं. उन्होंने मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगाया है कि 2019 में कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिल पर हुए हमला सिस्टम की ‘अक्षमता’ और ‘लापरवाही’ का नतीजा था. सत्यपाल मलिक के खुलासे के बाद सोशल मीडिया पर विपक्षी दलों के साथ कई बुद्धिजीवियों के द्वारा भी सवाल खड़ा किया गया है.

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