झारखण्ड सीएम ने न्यूज़लॉन्ड्री और ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट, मेनस्ट्रीम मीडिया में शीर्ष पदों पर SC-ST पत्रकार की नगण्यता और महिलाओं के कम अनुपात पर जताया दुख. देशहीत में सार्वजनिक मंच से इस गंभीर मुद्दे पर छेड़ी बड़ी बहस.
रांची : देश का सबसे बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व बीजेपी के शासन में, पहली बार डिजिटल मीडिया के करण आदिवासी-दलित का ज्वलंत सच सामने आया है. ज्ञात हो, मोदी शासन में जहां देश की अधिकांश मेनस्ट्रीम मीडिया को गोदी मीडिया की संज्ञा मिलने का सच सामने है. तो वहीं मेनस्ट्रीम मीडिया पत्रकारिता में शीर्ष पदों पर एससी-एसटी की उपस्थिति नगण्य होने का सच भी सामने है. महिलाओं के अनुपातिक संख्या भी कम होने का सच सामने आया है.
मसलन, देश का अधिकांश आबादी तथाकथित स्वर्ण पत्रकारों के उलटे चश्मे से अपनी स्थिति देखने को विवश है. ज्ञात हो, यह गंभीर जानकारी न्यूज़लॉन्ड्री और ऑक्सफैम इंडिया की ताजा रिपोर्ट में सामने आई है. रिपोर्ट के अनुसार मेनस्ट्रीम मीडिया में, शीर्ष पदों पर एक भी एससी-एसटी समुदाय के पत्रकार नहीं हैं. झारखण्ड के सीएम हेमन्त सोरेन द्वारा सार्वजनिक मंच से इस गंभीर मुद्दे को उठा बड़ा विमर्श छेड़ा गया है. वह इस मुद्दे पर देश में बड़ी बहस चाहते हैं.
मेनस्ट्रीम मीडिया में SC-ST की उपस्थिति पर न्यूज़लॉन्ड्री और ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट
न्यूज़लॉन्ड्री और ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट में स्पष्ट सच सामने आया है कि अखबार, टीवी, डिजिटल मीडिया जैसे मेनस्ट्रीम मीडिया की पत्रकारिता के शीर्ष पदों पर 218 में 191 कर्मचारी सामान्य वर्ग के हैं. एससी-एसटी समुदाय के लोग नगण्य हैं. रिपोर्ट के अनुसार 60% से अधिक हिंदी व अंग्रेजी भाषा के अखबार में लेख लिखने वाले 95% लोग सामान्य वर्ग से हैं.
ज्ञात हो, टीवी मीडिया में 56% अंग्रेजी चैनल के और 67% हिंदी चैनल के एंकर अगड़ी जातियों से हैं. टीवी डिबेट में एक भी एंकर्स SC-ST वर्ग के नहीं हैं. इन समुदायों के लोग सिरे से खारिज हैं. घोर जातिवादी युग के शासनकाल में यह समुदाय अगदी जातियों के चश्मे से अपनी स्थिति देखने को विवश हैं. नतीजतन, तमाम परिस्थितियां बीजेपी-संघ के नीतियों पर प्रश्न खड़े करते हैं.
ऑनलाइन मीडिया से आदिवासी-दलित समुदाय को पत्रकारिता में मिली जगह जिस पर बीजेपी नीतीयां लगातार कस रही अपना शकंजा
स्वयं सेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के संकुचित मानसिकता पर आधारित भाषण का झूठ भारत में व्याप्त जाति व्यवस्था की छाप मीडिया जगत में भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है. ज्ञात हो, इस विमर्श की स्थिति देश में ऑनलाइन मीडिया की वजह से शुरू हो पायी है. मीडिया में विविधता देखने को मिली है और यह समुदाय अस्पन सच सामने ला पाए हैं. अन्यथा आदिवासी-दलित समुदाय की दयनीय स्थिति का अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता था.
टीवी न्यूज़ में एससी-एसटी समुदाय की समस्याओं बहस की वर्तमान स्थिति
संघ प्रचारक रहे प्रधानमंत्री मोदी के शासन युग में हिंदी न्यूज़ चैनलों में SC-ST समुदाय की समस्याओं की वर्तमान स्थित पर हुए बहस की गणना भी तथ्य को उभारते हैं. ज्ञात हो, मात्र 1.6% प्राइम टाइम डिबेट में एससी-एसटी वर्ग की स्थिति पर चर्चाएं हुई है. इस कड़ी में सबसे ज्यादा डिबेट NDTV ने की हैं. वह आंकड़ा भी मात्र 3.6% है.
ABP न्यूज़ -2.4%, खुद को देश का सबसे बड़ा मीडिया चैनल बताने वाला AAJ TAK की बौद्धिक क्षमता महज 1.8% है, संसद टीवी 1.3%, ज़ी न्यूज़ 1.3% और इंडिया टीवी ने तो सबसे कम मात्र 0.8% ही डिबेट की हैं. सीएनएन न्यूज़18 और रिपब्लिक भारत ने तो इस गंभीर मुद्दे पर एक भी डिबेट नहीं की. क्या यह तमाम आँकड़े देश के स्वर्ण मीडिया के मानसिकता पर प्रश्न खड़े नहीं करते हैं.
मेनस्ट्रीम मीडिया जगत में महिलाओं की संख्या पर भी पुरुषवादी मानसिकता का छाप
न्यूज़लॉन्ड्री और यूएन वीमेन की ताजा रिपोर्ट में यह तथ्य भी सामने आया है कि देश के हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के शीर्ष नेतृत्व पर महज 5% महिलाओं के ही उपस्थिति है. देश की मेनस्ट्रीम मीडिया की पत्रकारिता में आधी आबादी का अनुपात महज 5% होना वर्तमान मोदी सरकार के नीतियों व स्वर्ण बुद्धिजीवी मीडिया जगत की पुरुषवादी मानसिकता की पोल खोलती है. क्योंकि हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के शीर्ष नेतृत्व में अगड़ी पुरुषों की संख्या लगभग 87% है.
जेंडर रिप्रेजेंटेशन इन इंडियन न्यूज़रूम नाम से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मीडिया में महिलाओं की संख्या अनुपात से काफी कम है. और निर्णय लेने वाले पदों पर तो यह कमी और अधिक है. इंग्लिश न्यूज़ चैनलों में महिलाओं की संख्या 42.62% है जबकि पुरुषों की संख्या 57.38% है. हिंदी टीवी चैनलों में महिलाओं की संख्या महज 22.58% है.
यहां भी डिजिटल मीडिया महिलाओं की 38.89% भागीदारी के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया पर भारी है. अंग्रेजी अख़बारों में 14.71 %, हिंदी अखबारों में यह संख्या सिर्फ 9.68% है. और मैगजीन जिसमें महिलाओं की की तस्वीरें अधिक होती है उसमें भी महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 10.71% है. द इंडियन एक्सप्रेस समेत कई अखबारों के शीर्ष नेतृत्व में एक भी महिला नहीं है.
देशहित में इस गंभीर मुद्दे पर विमर्श जरूरी – सीएम हेमन्त ने मुद्दा उठा निभाया सामाजिक धर्म
भारत देश के विकास में, संवैधानिक मूल्यों के प्रसारण में उपरोक्त तथ्य एक बड़ा बाधक है. मसलन, देश के दबे कुचले दलित-आदिवासी वर्ग जो अब तक अपनी अस्तित्व की ही लड़ाई लड़ रहे हैं. देश की महिलायें सामाजिक पुरुषवादी बेड़ियों के जकड़न से लथ-पथ है. समझा जा सकता है उनकी वर्तमान स्थिति पर विमर्श कितना जरूरी व अहम है.
मसलन, झारखण्ड राज्य के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन द्वारा इस मुद्दे को सार्वजनिक मंच से छेड़ कर मानवता को आवाज लगाई गई है. यह उनके लोकतंत्र के प्रति दायित्व समर्पण को दर्शाता है. हालांकि, इस गंभीर मुद्दे पर सबसे पहले, प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री, राज्यपाल महोदय को आगे आकर इस विमर्श को बल देना चाहिए था और व मोहन भागवत को अपना स्टैन्ड स्पष्ट करना चाहिए था.