मोदी सत्ता मे नीतियों का विरोध बड़ा गुनाह क्यों…?

विरोध के स्वर मोदी सत्ता में नक्सली, देशद्रोह व दंगाई के स्वर सरीखे क्यों? देश के नागरिकों को जबरन अपराधियों में बदलने का सरकारी प्रयास क्यों…?

रांची : देश की मोदी सत्ता में नीतियों का विरोध बड़ा गुनाह है. विरोधकर्ता को नक्सली, देशद्रोही से लेकर दंगाई तक करार दिया जाता है. ये कैसे दंगाई हैं? जिन्हें पुलिस लाठी चलाते, आग लगाते व मारते नहीं देखती, केवल कुछ भाषण में विरोध प्रदर्शन की अभिव्यक्ति भर होने से गिरफ्तार कर लेती है. जिसके अक्स में वह सालों जेल में सड़ते हैं. ऐसे में अदालत कहे कि पुलिस द्वारा पेश ‘सबूत’ हिंसा भड़काने के आरोप को सिद्ध नहीं करती. जिसे आतंकवादी, राष्ट्रविरोधी या हिंसक कार्रवाई नहीं माना जा सकता. तो सरकार की मंशा पर गंभीर सवाल खड़ा हो सकता. क्या सरकार का प्रयास नागरिकों को अपराधियों में बदलने भर का है?

ज्ञात हो, मोदी सत्ता में ऐसे कृत्य सुचिंतित ढंग से हुए है. जहाँ सरकारी नीतियों का विरोध करने वालों को अपराधी घोषित किया गया. नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध करने वालों को दिल्ली दंगों से जोड़ा गया. दंगाई, नक्सली, अपराधी बना जेल में डाल दिया गया. भीमा कोरेगांव मामले में लेखक – बुद्धिजीवी जेल में हैं. 84 वर्ष का वृद्ध जो दैनिक क्रियाएं तक नहीं कर पाता था. अमानवीय प्रताड़ना का शिकार हुआ, गरीब महिलाएं जो आदिवासियों के अधिकार के मद्देनजर, उनके बीच काम करती रही हैं. जेल के काले अँधेरे में हैं. इसमें दिलचस्प पहलु यह है कि इसमें केवल तंत्र को ही नहीं झोंका जा रहा, नागरिकों के समूह को भी ख़िलाफ़ में खड़ा कर उनका इस्तेमाल किया जा रहा है.

देश की संविधान की गरिमा धार्मिक पुस्तक सरीखी क्यों हो चली है?

सांप्रदायिक-जातिगत टकराव भारत का पुराना ऐतिहासिक कोढ़ है. इस टकराव को पाट कर  आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई. संविधान के माध्यम से भारत गढ़ने के प्रयास हुए. जिसके कैनवास में खींची लकीरें गैरबराबरी के विरुद्ध शपथ माना गया. समानता व स्वतंत्रता को गारंटी माना गया. लेकिन मौजूदा सत्ता के कृत्य उस संविधान की मूल भावना को अंगूठा दिखाया है. और मौजूदा दौर में आक्रामक भारत बहुसंख्यक वर्चस्व का वजूद लेता जा रहा है. जहाँ संविधान की गरिमा धार्मिक पुस्तकों जैसी हो गयी है. और ऐसा इसलिए हुआ ताकि लोगों को संस्थानों से अधिक सरकार ठीक लगे. 

नतीजतन, न्यायपालिका से लेकर चुनाव आयोग तक को लेकर शिकायतें बढ़ी.. मीडिया में न बौद्धिक क्षमता ना ही स्वतंत्रता का गुमान बचा. पुलिस तंत्र तो दशकों से जड़ता का शिकार है. राजनैतिक नेतृत्व सामंत बन सामने आयी – जिसका शिकंजा क़ानून-व्यवस्था पर ही नहीं, विरोधियों पर भी कसा. यूपी वह उदाहरण हो सकता है जहाँ पिछले चार वर्षों में पुलिस-मुठभेड़ उसकी संस्कृति बन गई है.

ऐसे में यदि गरीब राज्य बिहार में पेट्रोल का भाव 100 रुपए प्रतिलीटर पार कर जाए तो देश को अचंभा क्यों?  भारत की गरीब जनता, महामारी काल में सरकार को कई लाख करोड़ टैक्स देने का रिकॉर्ड बनाए. तो अध्यात्मिक भारत को क्या गुरेज हो सकती है. भारत की बर्बाद अर्थव्यवस्था में लोग बेरोजगार हो तो देश को चिंता क्यों? आखिर देश की जनता ही ने तो अपने हाथों से बर्बादी को आमंत्रित किया है.

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