बंगाल चुनाव क्यों है महत्वपूर्ण, क्यों झामुमो ने चुनाव न लड़ने का लिया फैसला?

दक्षिण भारत में भाजपा फिलोस्पी को खारिज होने के बाद अचानक उसके लिए बंगाल चुनाव महत्वपूर्ण हो गया। ऐसे में झामुमो का चुनाव न लड़ने का फैसला बंगाल में भाजपा को करेगा कमजोर

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में, दक्षिण भारत ने जब भाजपा के उस फिलोस्पी को खारिज कर दी। तो अचानक उसके लिए बंगाल महत्वपूर्ण हो गया। सीएए कूटनीति के दृष्टिकोण से भी बंगाल चुनाव भाजपा के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। जो दलित-आदिवासी, ओबीसी के लिए घातक है। प्रचार में स्थानीय मुद्दे गौण है और जय श्री राम का जोर है। बंगाल चुनाव एक चरण में हो सकता था परंतु आठ चरण में किया जाना दर्शाता है कि भाजपा में कार्यकर्ताओं की कमी है। हालांकि 2, मई को मतगणना में परिणाम स्पष्ट हो जाएगा। 

बंगाल राजनीति में मुख्य रूप से  बंगाली वैध, ब्राह्मण और कायस्थ, तीन सवर्ण जातियों का ही राज रहा है।। जिसकी संख्या ब-मुश्किल 12 से 15 पर्सेंट है। लेकिन शिक्षा, सत्ता, संपत्ति, और कला में भी इन्हीं कब्जा है। दलित 24 %, आदिवासी 5-8 % व मुस्लिम की संख्या 26% से अधिक है। बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष दिलीप घोष हैं। बंगाल में, गोप, सदगोप, और कायस्थ, सभी घोष टाइटल लगाते हैं। कुछ कायस्थ बोस, बसु भी लिखते हैं। कल सीपीएम मे यही वैध, ब्राह्मण और कायस्थ थे। जो सीपीएम की हार की परिस्थिति में टीएमसी के हो गए। और आज चीट फण्ड जुडी वह स्वर्ण मानसिकता बीजेपी में हैं। और बीजेपी इन्हीं के भरोसे जाति का कार्ड खेलने से चूक रही।

आम तौर पर बंगाल चुनाव में ऐसी परम्परा नहीं रही। जहाँ शुभेंदु अधिकारी नंदीग्राम जैसे आन्दोलन की धरती में पूजा अर्चना कर कहे कि वह ब्राह्मण है, और सनातनी हिंदू भी। तो यह जान लेना चाहिए कि देश में कोई समुदाय समरूप नहीं है। भारत में 1886 तरह के ब्राह्मण हैं। अकेले सारस्वत ब्राह्मण 469 उप जातियों में बटे है। क्षत्रिय 990 शाखा में। दक्षिण भारत के ब्राह्मण और उत्तर भारत के ब्राह्मण मे भी भेदभाव है। गुजरात में दस-बारह घर की अलग अलग ब्राह्मण बिरादरियां है। 

बंगाल के ब्राह्मण आर्य नही मंगोल नस्ल के

बंगाल के ब्राह्मण आर्य नही मंगोल नस्ल के हैं। 1929, मे लाहौर में आर्य समाज के जात पात तोड़क मंडल की अध्यक्षता करते हुए, स्वo बाबू रामनंद चट्टोपाध्याय ने कहा था कि वे बंगाली ब्राह्मण है, और उनमें मंगोल रक्त का मिश्रण है। इस पर उन्हें गर्व है। लेकिन इस बार बीजेपी दलित-पिछड़ों को साधने की कोशिश में किसी को भी सनातनी करार देने से नहीं चूक रही। बंगाल नव जागरण का केंद्र रहा है। स्वामी विवेकानंद, टैगोर, राजा राम मोहन राय, विद्यासागर, सुभाष चन्द्र बोस, जे सी बोस, आदि कई दिग्गज नेताओं ने देश का नाम ऊंचा किया है।

1911 तक कोलकाता देश की राजधानी थी। बंगाल, बिहार, ओडिशा बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा हुआ करता था। बंगाल के लोग ही नौकरी करते थे। इसलिए सुभाष चन्द्र बोस का जन्म कटक में, डॉ. वी सी राय का जन्म पटना में हुआ। कई उदाहरण हैं। बंगाल में दलित, मुस्लिम व आदिवासी की आबादी लगभग 60% है, पर नेतृत्व नही है। दलित मे नमो शूद्र, यानी चंडाल मजबूत कौम है। इसी समाज के डॉ. योगेन्द्र नाथ मंडल थे। विभाजन के बाद पाकिस्तान गए, वहां के पहले विधि मंत्री बने। यह  संयोग है कि भारत का पहला कानून मंत्री, तथा पाकिस्तान का पहला कानून मंत्री दलित ही थे।

1863 मे नमो शूद्र लोगों ने चार माह का आंदोलन किया

1863 मे नमो शूद्र लोगों ने चार माह का आंदोलन किया, इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था टूट गई थी। मुस्लिम आबादी 26% से ज्यादा होते हुए भी राजनीति में सफल नहीं। कुछ साल पहले, पश्चिम बंगाल में रहने वाले प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन की “मुस्लिमों की हकीकत” शीर्षक के  रिपोर्ट के मुताबिक महज 3.8% मुस्लिम परिवार ही हर महीने पंद्रह हजार रुपए कमा पाते हैं। महज 1.54% मुस्लिम परिवारों के पास ही सरकारी बैंक में खाता है। राज्य के 6 से 14 साल के 14.5% मुस्लिम बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। दलित, आदिवासी और मुस्लिम की स्थिति बंगाल में वोट बैंक के सिवाए कुछ नहीं।

मसलन, ऐसे में लुटेरों की टोली से दलित, आदिवासी, मुस्लिम व अन्य वर्ग के गरीबों के बचाव में, शक्ति का बंटवारा न करने के मद्देनजर झारखंड मुक्ति मोर्चा का बंगाल में चुनाव न लड़ने का फैसला युक्ति संगत माना जा सकता है। क्योंकि देश लूट व साम्प्रदायिक ताकतों को बंगाल में रोकने हेतु मजबूत दल में केवल टी एम सी है। और ममता बनर्जी का चुनाव जीतना अहम हो जाता है। यदि EVM, मे हेरा फेरी न हो तो ममता बनर्जी चुनाव जीत सकती है।

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