मोदी सरकार ने जून 2020 में कृषि-सम्बंधित तीन अध्यादेश पेश किये और लोकसभा और राज्यसभा में हो-हल्ले के बीच सितम्बर 2020 में पारित करवा लिया। हरसिमरत कौर शिरोमणि अकाली दल की सांसद व केन्द्र सरकार में मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। साथ ही उनकी पार्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन पर “पुनर्विचार” की धमकी भी दे दी। कुछ तथाकथित क़ौमवादी भी इस कव्वाली में ताल देने के लिए अपना “संघवाद” का ढोलक बजा रहे हैं।
सारी भसड़ में वे मुद्दे ग़ायब हैं या पीछे छुट गये हैं, जिन पर खड़े होकर मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों को इन अध्यादेशों/क़ानूनों का विरोध करना चाहिए। अधिकांश राजनीतिक शक्तियाँ इन अध्यादेशों के ज़रिये लाभकारी मूल्य की व्यवस्था के ख़त्म होने पर छाती पीट रही है, तो कुछ कृषि उत्पाद विपणन व्यवस्था यानी सरकारी मण्डियों के ख़त्म होने पर रो रहे हैं। लेकिन असल सवाल ग़ायब हैं।
कृषि-सम्बन्धी तीन अध्यादेश: इन अध्यादेशों में क्या है?
सरकार के इन तीनों अध्यादेशों के प्रावधानों में प्रमुख बिंदु यह है कि सरकार ने खेती के उत्पाद की ख़रीद के क्षेत्र में उदारीकरण का रास्ता साफ़ कर दिया है। पहले अध्यादेश फार्म प्रोड्यूस ट्रेड एण्ड कॉमर्स (प्रमोशन एण्ड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस’ का मूल बिन्दु यही है। जिसके तहत कोई भी निजी ख़रीदार किसानों से सीधे खेती के उत्पाद ख़रीद सकेगा। पहले ए.पी.एम.सी. (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमिटी) की मण्डियों में सरकारी तौर पर निर्धारित लाभकारी मूल्य पर ही किया जा सकता था। ठीक पेट्रोल-डीजल की भांति।
दरअसल, केंद्र सरकार धनी किसानों व कुलकों और गरीब किसानों के बीच फूट डालो राज करो की राजनीति भी साध रही है। उन्हें डर है कि सरकार द्वारा तय मूल्य सुनिश्चित नहीं किये जाने के कारण कारपोरेट ख़रीदार कम क़ीमतों पर खेती के उत्पाद की ख़रीद करेंगे। हो सकता है कि ये शुरू में अधिक क़ीमतें दें, लेकिन बाद में, इजारेदारी क़ायम होने के बाद, ये किसानों को कम क़ीमतें देंगे। नतीजतन ये मण्डियाँ कालान्तर में समाप्त हो जायेंगी या बेमतलब रह जायेगी। क्योंकि मण्डियों के बाहर व्यापार क्षेत्रों में होने वाले विपणन में किसानों व व्यापारियों पर कोई शुल्क नहीं लगाया जायेगा।
इसके अलावा, राज्य सरकारों को ए.पी.एम.सी. मण्डी में होने वाली बिकवाली पर प्राप्त कर प्रावधान भी स्वतः समाप्त हो जायेगा। जिससे राज्य सरकारें अवसंरचनागत ढाँचे को बेहतर बनाने का कार्य नहीं कर पाएगी। जो सीधे तौर पर राज्यों के अधिकारों पर हमला माना जा सकता है। लेकिन, अखिल भारतीय किसान सभा के विजू कृष्णन का स्पष्ट कहना कि – सरकार यदि लाभकारी मूल्य को किसानों का क़ानूनी अधिकार बना दे ताकि कोई निजी ख़रीदार भी लाभकारी मूल्य देने के लिए बाध्य हो, तो उन्हें ए.पी.एम.सी. मण्डी के एकाधिकार के समाप्त होने से कोई दिक़्क़त नहीं है। फूट डालो वाली राजनीति का पोल खोल देता है।
‘दि फार्मर्स (एम्पावरमेण्ट एण्ड प्रोटेक्शन) एग्रीमेण्ट ऑन प्राइस अश्योरेंस एण्ड फार्म सर्विसेज़ ऑर्डिनेंस
दूसरे अध्यादेश के अनुसार किसान अब अपने उत्पाद को ए.पी.एम.सी. मण्डी के लाइसेंसधारी व्यापारी के ज़रिये बेचने को ए बाध्य नहीं हैं। वह किसी भी कम्पनी, स्पॉन्सर, बिचौलिये के साथ किसी भी उत्पाद के उत्पादन के लिए सीधे क़रार कर सकते हैं। इसके तहत उत्पादन शुरू होने से पहले ही उत्पाद की तय मात्रा, तय गुणवत्ता व क़िस्म तथा तय क़ीमतों के आधार पर किसान और किसी भी निजी स्पांसर, कम्पनी, आदि के बीच क़रार होगा।
इस क़रारनामे की अधिकतम अवधि उन सभी उत्पादों के मामले में पाँच वर्ष होगी जिनके उत्पादन में पाँच वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है। साथ ही अनिवार्य वस्तुओं के स्टॉक पर रखी गयी अधिकतम सीमा को भी हटा दिया गया है। यानी अब तमाम अनिवार्य वस्तुओं की जमाखोरी पर किसी प्रकार की रोक नहीं होगी। जिससे कालान्तर में आलू, प्याज़ आदि की क़ीमतों को बढ़ा सकेगा।
मसलन, केंद्र सरकार यह जानती है कि ठेका खेती के आने से गरीब किसान के बीच यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बनेगा। क्योंकि, छोटा और मंझोला किसान पहले से ही ठेका खेती की व्यवस्था का शिकार है । फ़र्क़ बस इतना होगा कि अबतक ठेका खेती की व्यवस्था में धनी किसान व आढ़ती की लूट थी। अब सरकार के चहेते पूंजीपति लूटेंगे। और जनता के मुंह में जुबान तो है नहीं! लेकिन, एक बात तो साफ़ है कि देश के अलग-अलग प्रान्तों में गंभीर नतीजे सामने आयेंगे।
तीसरा अध्यादेश आवश्यक वस्तु पर जमाखोरी और काला बाज़ारी को बढ़ावा देती है
तीसरा अध्यादेश आवश्यक वस्तु क़ानून में परिवर्तन करते हुए जमाखोरी और काला बाज़ारी को बढ़ाने की सीधे तौर पर छूट देता है। क्योंकि ये कई आवश्यक वस्तुओं की स्टॉकिंग पर सीमा को युद्ध जैसी आपात स्थितियों के अतिरिक्त समाप्त कर देता है। यह सीधे तौर पर गरीब जनता के हितों के विरुद्ध है और उसके वर्ग हितों को नुक़सान पहुँचाता है। जिसका विरोध किये जाने की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन, तीसरे अध्यादेश पर ज़्यादा कुछ नहीं बोला जा रहा है।
इन अध्यादेशों का सम्बन्ध सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से बहाल करने की माँग से भी जुड़ा हुआ है। केन्द्र सरकार पहले से ही इस कोशिश में है कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली की ज़िम्मेदारी से पूरी तरह से पिण्ड छुड़ा लिया जाए। ज़ाहिर है, इस प्रस्ताव का अर्थ ही यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूर्ण रूप से समाप्त कर जनता की खाद्य सुरक्षा को समाप्त करना। इसलिए तमाम जनता की सबसे जरुरु माँग यह होने चाहिए कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से बहाल किया जाये।
मसलन, सरकार को पहले से पता है कि तीनो अध्यादेश गरीब मंझोले व धनी किसानों व कुलकों के बीच आपसी विवाद को जन्म देगा। जिससे सरकार को स्वतः ही फायदा पहुँचेगा। इसलिए मुख्य रूप से गाँव के लेकिन साथ ही शहर के मज़दूर वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग और गाँव के ग़रीब किसान व अर्द्धसर्वहारा वर्ग के लिए प्रमुख प्रश्न है कैसे वह आपसी तालमेल बनाते हुए मोदी सरकार के चक्रव्यूह को तोड़ते है। साथ ही छोटे पूंजीपतियों के लिए भी सबक है कि वे जल्द भाजपा से मोह भंग कर लें नहीं तो आगे उनकी बारी है।