सामंतवाद के दौर में लोक नायकों को दो कदम पीछे आ बनानी ही पड़ती है रणनीत 

झारखण्ड : जब लोकतंत्र में सामन्ती घुसपैंठ काफ़ी भीतर तक हो. संस्थानों में अधिकाँश कलम उसके हो, तो मुमकिन है कि जन हित मुद्दे अधर में लटक ही हैं. ऐसे में लोक नायकों को दो कदम आ नए सिरे से रणनीति बनानी ही पड़ती है.

रांची : ऐसे दौर में जब लोकतंत्र में फ़ासी या सामन्ती विचार की घुसपैंठ काफ़ी भीतर तक हो. तमाम संस्थान में अधिकाँश कलम उसकी हो, तो मुमकिन है कि जन हित के मद्देनजर दमित, मध्यमवर्ग व इंसाफ परस्त के मुद्दे अधर में लटक ही जाते हैं. ऐसे में इन समुदाय के नायकों को कठिनाई सामना करना पड़ता है. और जीत के लिएउन्हें दो कदम पीछे हट कर नए सिरे से रणनीति बनानी पड़ती है. जिसके अक्स में इन नायकों को हताश जनता के भ्रम का भी शिकार होना पड़ता है. 

सामंतवाद के दौर में लोक नायकों को दो कदम पीछे आ बनानी ही पड़ती है रणनीत

देश ने यह स्थिति को स्वतंत्रता आन्दोलन में जिया. झारखण्ड जैसे राज्य ने अलग राज्य आन्दोलन के दौर में जिया. अलग झारखण्ड की जनता इसे पिछले 20 वर्षों में जिया है. और वर्तमान में हेमन्त शासन में भी ऐसे ही स्थिति आन खड़ी हुई है. लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र के नायकों ने तब भी हार नहीं मानी और हमें आजाद देश दिया, अलग झारखण्ड दिया, और सीएम सोरेन नेतृत्व में 1932 वर्ष खतियान आधारित स्थानीय-नियोजन नीति समेत तमाम जीत मिल सकती है. 

जरुरत है तो केवल राज्यवासियों को अपने नायक के साथ विश्वास के साथ डट कर खड़े रहने की. क्योंकि सामंती या फ़ासी युग में जीत आसानी से नहीं मिल सकती है. हालांकि इसके संकेत सीएम सोरेन ने विधानसभा सत्र में दे दिए हैं. उन्होंने कहा कि एक आन्दोलनकारी शेर के खून हैं. और उन्होंने राज्य के अधिकारों को फ़ासी जबड़ों से जीतने के लिए अपने दो कदम पीछे लिए है. और जब वह अगली छलांग लगायेंगे तो जनता के सपने जीत के रूप में झारखण्ड के झोली में आयेगी. 

Leave a Comment