बीमारी में भी दिसुम गुरू shibu soren ने अलग झारखंड की आस न छोड़ी. बीमारी से परेशान, न खाने को खाना था और न ही पीने को पानी. मजबूरन उन्हें जंगल की राह पकडनी पड़ी, मीलों दूर तक न घर न ही मानव का कोई निशान.
पिछले लेख में हमने देखा कि उपायुक्त के. बी. सक्सेना गुरूजी (shibu soren) के प्रति सॉफ्टकार्नर रखने लगे थे। इधर गुरूजी इस उधेड़बुन में थे कि किस विचारधारा वाले राजनीतिक दल का दामन वे थामे, जिससे पूरे झारखंड समाज का भला हो सके। इसी क्रम में पहले कांग्रेस, फिर सीपीआई और अंत में उन्होंने सोनोथ संथाल समाज का गठन किये। हालांकि क्षेत्रीय दल होने की वजह से लोग इसकी मान्यता व्यापक स्तर पर नहीं दे रहे थे और गुरूजी भी समझ रहे थे कि इस रास्ते राजनीतिक मुकाम तक नहीं पहुंचा जा सकता।
न ही पुलिस ने shibu soren का पीछा छोड़ा था और ना ही साहूकारों के गुंडों ने
इधर, अबतक न ही पुलिस ने इनका पीछा छोड़ा था और न ही साहूकारों के गुंडों ने। इन परिस्थियों के बीच एक गाँव से दूसरे गाँव का दोश्रा, न रहने का ठिकाना न खाने का -मतलब गुरूजी का जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त था -जंगलों में कई रातें गुजारने के कारण मच्छरों ने उन्हें काट-काट कर बीमार कर दिया। जिस गाँव में वे ठहरे हुए थे वहां पानी की भी भारी किल्लत थी -गाँव के समीप बहती पहाड़ी नदी व छीछले कुएँ से जैसे-तैसे जरूरत पूरी तो हो रही थी, लेकिन अब वे भी अब जवाब दे रहे थे।
हरलाडीह (पारसनाथ) के गोद में बसने वाला खूबसूरत गाँव) नज़दीक था, उन्होंने वहां जा गाँव के डॉक्टर से अपनी बीमारी का इलाज कराने को सोचा -उन दिनों गाँव या कस्बे कोई प्रशिक्षित डॉक्टर नहीं हुआ करता था, स्थानीय वैद्य जड़ी-बूटी जैसे हर्ब को मिलाकर कसैली व कड़वी काढ़ा तैयार किया करते थे जिससे रोग/बीमारी का उपचार किया जाता था। चूंकि गुरूजी दिमागी व शारीरिक तौर पर मजबूत शख्सियत थे, उन्होंने बुखार के हालत में ही अपने चंद साथियों के संग अपनी बीमारी का इलाज़ करवाने के लिए हरलाडीह की ओर रुख किये।
गुरूजी (shibu soren) बीमारी से परेशान, न खाने को खाना था और न ही पीने को पानी
हरलाडीह सीमा रेखा के समीप ही उन्हें डुगडुगी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी जो गाँव में पुलिस के आने का संकेत हुआ करता था। मजबूरन उन्हें जंगल की राह पकडनी पड़ी, मीलों दूर तक न घर न ही मानव का कोई निशान। तेज बुखार ने उन्हें बेहोश कर वहीं ज़मीन पर पटक दिया। साथियों ने किसी तरह उन्हें संभाला और वहीँ सुला दिए, स्थिति यह थी कि गुरूजी बीमारी से परेशान, न उनके पास खाने को खाना था और न पीने को पानी। दो साथी पहाड़ी से नीचे उतर भीगी मिट्टी को भी खोदे लेकिन पानी न मिल सका। रात का पहला पहर हो चला परिस्थिति विकट थी…
अभी रात का दूसरा ही पहर शुरू हुआ था कि गुरु जी के कानों में मेढकों की टरटराने की आवाज़ आयी। यकायक वे उठे और साथियों को कहा कि ध्यान से सुनते हुए इस आवाज़ का पीछा करो पानी ज़रूर मिलेगा। उनके साथियों ने वैसा ही किया और पहुँच गए जलाशय तक, लेकिन पानी गन्दा था। कई दफा वे उस पानी को कपड़े से छान कर खुद भी पिए और गुरूजी को भी ला पिलाए – इस प्रकार लंबी रात कटी… अगली सुबह उन लोगों ने अंदाजा लगाया कि वे मधुबन से सटे हुए हैं, जहाँ जैन का उन दिनों बसेरा था, उन्होंने सोचा कि यदि वे वहां तक पहुँच गए तो गुरु जी बच जायेंगे।
shibu soren आगे की लडाई लड़ने को कमर कस कर चल पड़े
किसी प्रकार हर बाधाओं को पार कर वे जैन मुनियों के आश्रम तक पहुंचे, जहाँ गुरूजी के बीमारी का इलाज़ हुआ और गुरूजी के संग उनके साथियों ने भंडारे का प्रसाद ग्रहण कर भूख भी मिटाए। गुरूजी जैन मुनियों के इलाज से शीघ्र ही ठीक हो गए, लेकिन गुरूजी ने उनको अपनी पहचान नहीं बताये, उन्होंने जैन मुनियों का आदर भाव से चरण स्पर्श किये और अपनी आगे की लडाई लड़ने को कमर कस कर चल पड़े। आज वही ऐतिहासिक पुरुष, वही शसक्त आवाज 10वीं बार लोकसभा का पर्चा भर दुमका से प्रत्याशी हैं -जिसे हारने के लिए पूरी देश की फासीवादी ताक़तें एक हो गए हैं। निश्चित रूप से यह झारखंडियों के लिए कठीन परीक्षा की घड़ी है।