भाजपा रामराज में पुरुषोत्तम राम और सीता मैया की सेवा करते अनुज भारत

जिस प्रधानसेवक का हर निर्णय गरीबों के हित या गरीबों की फ्रिक से सरोकार न रख कॉरपोरेट हित से जा जुड़े. उस भाजपा रामराज में पुरुषोत्तम राम और सीता मैया की सेवा करते अनुज भारत का चुनावी सच 

सत्ता की रेस में गरीबों का दर्द, गरीबों की जद्दोजहद जिस प्रधानसेवक के जुबां पर प्रधान सवाल के तौर पर हो। सत्ता संभालते ही उस प्रधानसेवक का हर निर्णय गरीबों के हित या फिर गरीबों की फ्रिक से सरोकार न रखे और कॉरपोरेट हित से जा जुड़े। कॉरपोरेट को तमाम तरह के टैक्स में हर बरस छूट औसतन 5 लाख करोड़ की मिलती रहे। और ग्रामीण भारत के बुनियादी ढांचे, रोजगार, हेल्थ, शिक्षा, खेती सभी को मिला कर भी बजट 4 लाख करोड़ से अधिक जातेजाते हांफ जाए। तो चुनाव के मद्देनजर, उस प्रधानसेवक के 7वें बरस के कार्यकाल में यह मान लेना चाहिए कि गरीबों का जिक्र सिर्फ जुबां पर होता रहा। और देश में गरीबी नहीं गरीब तिल-तिल कर मरता रहा। 

मोदी झटके में अमीरों को खलनायक करार दे नोटबंदी तो कर दी, लेकिन सैंकड़ों गरीब के शहीद होने का सच उभरा। बेरोजगार हुए गरीब और माला-माल हुए चहेते कॉर्पोरेट मित्र. अचानक बिना सलाह-मशविरा के लोकडाउन लगाई. 300 सौ गरीब सड़क नापते शहीद हो गए. न एक अदद आंसू आँख से और न ही एक शब्द ही उस प्रधान सेवक के मुंह से निकले. तो क्या रिक्शा पर बैठ भाजपा सांसद जिक्र जिस गरीबी का कर रहे हैं. वह केवल चुनावी स्टंट भर ही है. ज्ञात हो कोरोना त्रासदी में जब गरीब परेशान थे तो यह झारखंडी ठग, बाबा निशिकांत, गरीबों की लाचारी का फ़ायदा उठा, रिंकिया के पापा के सीता मैया के नाम पर ज़मीन खरीदने में व्यस्त थे. 

जिस मनोज तिवारी ने सांसद के तौर पर गरीबों के लिए एक छोटी रेखा तक न खींची, उनका कोलकाता में रिक्शा खींचना गरीबों का मजाक उड़ाना भर ही हो सकता है! 

रिंकिया के पापा का संसद के तौर पर एक तस्वीर भी नहीं, जिसके अक्स में कहा जा सके कि उन्होंने देश तो दूर, बिहार के गरीबों के लिए ही कोई रेखा खींची हो. चूँकि इनका जुड़ाव स्वर्ण मानसिकता भर से है, इसलिए आडम्बर को जनता सही माने और सत्ता सौप दे. क्योंकि भगवान ने इन्हें धरती पर शासन करने के लिए जो भेजा है. बंगाल के धरती पर भरत ने अपनी सीता मैया व पुरुषोत्तम राम को रिक्शा में बिठा कर मीडिया के समक्ष खीच भर क्या लिया. बंगाल के रिक्शा चालक व देश के पालनहार, जो अपनी ज़मीन बचाने के लिए दर-बदर हो रहे हैं. उनके दुःख से भी जुड़ गए. तो क्या इनके प्रोपेगेंडा को गरीबी के हक में माना जाए, और गरीबों का हमदर्द इन्हें मान लिया जाए.

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