नोटबन्दी व जीएसटी उत्पन्न मंदी का सबसे अधिक असर असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को झेलना पड़ा है, शहरों के कारख़ानों से बड़ी संख्या में मज़दूरों की छँटनी हुई है। उत्पादन कम होने से जो काम पहले शिफ्टों में होता था, वह अब केवल एक शिफ़्ट में, कहीं कहीं तो वह भी नहीं चल रहा है। वह आबादी अब गाँव वापस चली गयी है और गाँव में पेड़ो के नीचे ताश खेल समय काट रही हैं। 2017 से एनजीटी के पड़ने वाले छापे भी इन कारख़ानों के बंद होने की एक और वजह भी मानी जा रही है। ऑल इंडिया मैन्युफ़ैक्चरर्स ऑर्गेनाइजेशन के 2018 के सर्वे के अनुसार रोज़गार की संख्या अब एक तिहाई रह गयी है।
झारखंड के तमाम लेबर चौकों पर खड़े मजदूर अब 350 की दिहाड़ी के जगह 200 रुपये में काम करने को तैयार हैं, फिर भी उन्हें काम नहीं मिल रहा। एनपीए से जुझ रहे बैंकों ने रियल इस्टेट को लोन देने से हाथ खड़े कर दिये हैं, साथ ही फाइनेंस सेक्टर का भी यही हाल है, इसलिए यह भी संकट से जूझ रही है। चूँकि गाड़ियों की बिक्री भी फ़ाइनेंस कम्पनी पर निर्भर थी इसलिए ऑटोमाबाइल सेक्टर में भी भयंकर तबाही मच हुई है। इसी कारण इसपर निर्भर तमाम छोटे उद्योग-धंधे भी तबाह हो चुके हैं। देश भर में एमएसएमई के अंतर्गत आने वाले क़रीब 6 करोड़ छोटे उद्योग, जिसमें लगभग 12 करोड़ मज़दूर कार्यरत थे, लोन न मिलने से इनका भी संकट गहरा चूका है। मन्दी की मार सब पर है।
सरकार इस मंदी का बोझ अब आम लोगों पर डालने का पूरा मन बना चुकी है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम ट्रेफिक चालान के रूप में देख सकते है। जहाँ पुलिस एक भीडतंत्र व अंग्रजों के माफिक आम जनता, बड़े-बुजुर्गों पर भी कोड़े बरसा चालान वसूलने से नहीं चूक रही। मसलन, फासीवाद कुछ व्यक्तियों की ऐसी सनक होती है जो ख़ुद के फायदे के लिए ऐसी बीमारी को बढ़ावा देते हैं। यह लोकतंत्र से इन्हें को मतलब नहीं होता, लेकिन राष्ट्रभक्ति की आड़ में पूँजी का नंगा खेल खेलते हुए खुली तानाशाही कायम कर देते हैं। नस्ल के आधार पर आम जनता को बाँट देते हैं और इस जूनून में हक़ की हर आवाज़ को दबा देते हैं।
3 comments
Pingback: ज़मीन लूट की मंशा से झारखण्ड में होने वाली ज़माबंदी सवालों के घेरे में
Pingback: पैसा ख़ुदा नहीं, लेकिन ख़ुदा की कसम ख़ुदा से कम भी नहीं - Jharkhand khabar
Pingback: नोटबंदी के तीन वर्ष उपरान्त शहीद नागरिकों को कैसे याद करें - Jharkhand khabar