…लेख को शुरू करने से पहले बताता चलूँ कि पिछले लेख में शिक्षकों के रिक्त पदों के अलावा आंगनबाड़ी कर्मियों पर बात हुई। आज की शुरुआत मंरेगा मजदूर तथा बाल मजदूरी जैसे संवेदनशील विषय से होगी और साथ ही
झारखंड में मनरेगा मजदूर की स्थिति
पिछले 3 साल के आंकड़े बतलाते हैं कि झारखंड में मनरेगा के अंतर्गत, यहाँ के बेरोजगारों को 100 दिनों कर बजाय औसतन 40 दिनों का ही रोजगार प्राप्त हुआ। वित्त वर्ष 2017-18 में रघुवर सरकार ने खुद अपनी पीठ थपथपा कर बताया था कि 94 फीसदी मजदूरों को 15 दिनों के भीतर मजदूरी का भुगतान कर दिया गया था, किंतु सरकार द्वारा सार्वजनिक की गयी जानकारी हक़ीकत में विपरीत एवं बिल्कुल निराधार थी। सच्चाई तो यह है कि मजदूरों को अपना मेहनताना प्राप्त करने के लिए अनेक समस्याओं से जूझना पड़ा जैसे आधार नंबर की अशुद्ध इंट्री, बैंक अकाउंट का आधार से लिंक ना होना, मास्टररोल में मजदूरों का गलत जानकारी अंकित होना, मजदूरी का भुगतान किए बिना ही योजना का बंद होना,आदि शामिल है।
इस मामले को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर (श्रम) दिवस के अवसर पर राज्य की झारखंड मुक्ति मोर्चा ने बड़ी प्रखरता के साथ उठाया था और नेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन द्वारा मांग भी किया गया था कि
- महंगाई को देखते हुए मनरेगा मजदूरी को 168 रुपये से बढ़ाकर कम से कम 230 रुपये किया जाय, साथ ही मेहनताने का भुगतान 15 दिनों के भीतर हो ये भी सुनिश्चित किया जाए।
- राज्य सरकार आधार से जुड़े तमाम लंबित मनरेगा भुगतान मामले का अतिशीघ्र निपटारा करें।
- आदिवासी और दलित परिवारों की गरीबी को प्राथमिकता देते हुए सरकार इनके लिए 100 दिनों की मजदूरी मुहैया अतिशीघ्र सुनिश्चित कराये।
लेकिन, दुखद यह है कि इस निर्दयी सरकार को इन गंभीर मुद्दों से कोई सरोकार ही नहीं है।
बाल मजदूरी
बाल मज़दूरी के अंतर्गत इस सरकार का पूरा शासनकाल बच्चों के ख़ून और पसीने में लिथड़ा हुआ है। बाल मज़दूरी के मुद्दे को पूरी आबादी के रोज़गार तथा समान एवं सर्वसुलभ शिक्षा के मूलभूत अधिकार के संघर्षों से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता है। जो व्यवस्था सभी हाथों को काम देने के बजाय करोड़ों बेरोज़गारों की विशाल फौज में हर रोज़ इज़ाफा कर रही है, जिस व्यवस्था में करोड़ों मेहनतकशों को दिनो-रात खटने के बावज़ूद न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती, उस व्यवस्था के भीतर से लगातार बाल-मज़दूरों की अन्तहीन क़तारें निकलती रहेंगी। ऐसी व्यवस्था पर सवाल उठाये बिना बच्चों को बचाना सम्भव नहीं, बाल मज़दूरों की मुक्ति सम्भव नहीं। चूँकि यह एक वृहद् विषय है और यह समस्या एक बड़े लेख की मांग करती है इसलिए इसे यहीं रोकते हुए बाल मजदूरी की आंकड़ों पर वापस आते हैं।
एक्शन अगेंस्ट ट्रैफिकिंग एंड सेक्सुअल एक्सप्लोइटेशन ऑफ़ चिल्ड्रन की रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में तकरीबन 5 लाख बाल मजदूर हैं। NSSO (66th round of Survey) की मानें तो, 5-14 आयु वर्ष वर्ग में, झारखंड में 82,468 बालमजदूर (67,807 लड़के और 14,661 लड़कियां)हैं, जो देश के कुल मजदूरों की संख्या का 1.65 प्रतिशत है।
द गार्जियन पत्रिका ने अपनी एक जाँच में पाया था कि झारखंड के माइका खदानों में लगभग 20,000 बच्चे काम करते हैं। जिनकी चोटों और मौतों का कोई भी रिकॉर्ड इस सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि अधिकांश माइका खदानें अवैध तौर पर संचालित होते हैं, जो देश के कुल माइका उत्पाद का 70 फीसदी उत्पाद करती हैं। चूँकि इन खदानों के मुनाफेखोरों को सस्ती मजदूर की जरूरत इन बच्चों से पूरी होती है? चूँकि सत्ता के कई नेताओं की मिलीभगत से यह निर्विघ्न रूप से संचालित होता है तो क्यों यह सरकार इन क्षेत्रों में किसी व्यस्क को रोजगार देगी? इसी प्रकार प्रदेश के अवैध कोयला खदानों में लाखों बच्चे काम करते हैं परन्तु यह सरकार इन बच्चों का बचपन बचाते हुए वयस्कों को रोजगार मुहैया कराने के तरफ आंख मुंडी हुई है।
तो क्या जब तक मुनाफाखोरी ख़त्म नहीं होगी, तब तक बाल मज़दूरी ख़त्म करने की कोशिशें छोड़ देनी चाहिए? कतई नहीं, बल्कि इन्हें पुरज़ोर ढंग से चलाया जाना चाहिए। पर इसका परिप्रेक्ष्य यदि क्रान्तिकारी नहीं होगा, साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी नहीं होगा, और यदि यह एक समग्र क्रान्तिकारी कार्यक्रम का अंग नहीं होगा तो यह महज एक सुधारवादी आन्दोलन होगा जो दूरगामी तौर पर व्यवस्था की सेवा ही करेगा।
राज्य की झारखण्ड मुक्ति मोर्चा लगातार या माँग उठाती रही है कि बाल मज़दूरी उन्मूलन क़ानून को प्रभावी ढंग से लागू किया जाये। इसके अमल की निगरानी के लिए हर ज़िले में समितियाँ गठित की जायें जिनमें ज़िला प्रशासन के अधिकारियों के साथ श्रम मामलों के विशेषज्ञ, जनवादी अधिकार आन्दोलन के कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हों। बाल मज़दूरी का कारण भयंकर ग़रीबी, बेरोज़गारी और सामाजिक सुरक्षा का अभाव है। इसलिए बाल मज़दूरी को प्रभावी तरीक़े से कम करने के लिए ज़रूरी है कि न्यूनतम मज़दूरी, ग़रीबों की सामाजिक सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा आदि के अधिकारों को मुहैया कराने के लिए ज़रूरत मुताबिक़ प्रभावी क़ानून बनाये जायें और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाये। परन्तु इस मुद्दे पर भी यह सरकार कान में तेल दाल कर सोयी हुई है। …जारी
अगले लेख का विषय बेरोजगारी दर निश्चित तौर पर होगी..
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