नक्सलवाद से लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों को विश्विद्यालय क्यों नहीं मिला

नक्सलवाद से लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों को विश्विद्यालय क्यों महरूम रखा गया  

मनुस्मृति को दरकिनार कर कौटिल्य अर्थशास्त्र की राह अपना चुकी केन्द्रीय सत्ता देश को उस मुहाने पर ला खड़ी की है, जहाँ वह देश चलाने के नाम पर अपनी ठाठशाही खर्चे के लिए, जनता की पसीने की कमाई पर खड़ी तमाम सरकारी संस्थाएं बेचने को आमादा है। जहाँ वह बिना पैसे लिए देश को किसी भी बुनियादी सुविधा मुहैया कराने को तैयार नहीं। जहाँ “मेक इन इंडिया” की परिभाषा महज 6 वर्षों में “असेम्बल इंडिया” में बदल गयी, वहां सवाल है कि सत्ता के नियत को कैसे मापा जाए।     

बजट पेश करने के महज चंद दिन पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शिष्टाचार मुलाक़ात में, प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि राज्य में आदिवासी विश्वविद्यालय बने। लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के 45 पन्ने के थकाऊ भाषण में इसका कोई जिक्र नहीं था। केवल एक आश्वासन कि झारखंड की राजधानी राँची में एक आदिवासी संग्रहालय की स्थापना की जायेगी। ऐसे में 180 डिग्री पर घूमती सवाल यही है कि क्या केंद्रीय सरकार की बुद्धि इतनी मंद है कि उसे संग्रहालय व विश्वविद्यालय का अंतर नहीं पता।

ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के सांसद जयंत सिन्हा, जो अपराधियों को गले लगाने को लेकर चर्चे में रहे, उनके वक्तव्य को नक्सलवाद से झूझती झारखंडी जनता किस कसौटी पर कसे, खुद में ही एक सवाल है। सांसद महोदय क्या सिद्ध करना चाहते है कि बिना ज़मीन मुहैया करवाए ही मुख्यमंत्री आदिवासी विश्वविद्यालय की मांग कर रहे थे। या उनका बयान सत्ता के नियत पर लगाए गए आरोप से पल्ला झाड़ने के प्रयास भर था, जो सरकार आदिवासियों को शिक्षा से दूर रखने की मंशा को उजागर करती है।     

बहरहाल, जिस आदिवासी समुदाय के अब तक अपना कोई लिखित दर्शन तक न हो, उस समुदाय के भविष्य के लिए संग्रहालय से कहीं अधिक महत्व एक विश्वविद्यालय रखता है। विडंबना देखिये जहाँ केद्रीय सत्ता नक्सलवाद को समाज पर एक बदनुमा मानती हो वहां विश्वविद्यालय का स्थापना क्या मायने रखता है, अंदाजा लगाया जा सकता है।    

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