किसानों का मसीहा कहने वाले सरकार के राज में फिर किसान ने की ख़ुदकुशी

खुद को किसानों का मसीहा कह शेखियां बघारने वाली सरकार के दावों वादों के बीच, गढ़वा के किसान ने आखिरकार सपरिवार मौत को गले लगाया 

झारखण्ड राज्य में खुद को किसानों का मसीहा कह शेखियां बघारने वाली सरकार के दावों वादों के बीच, गढ़वा के धुरकी में कर्जे में फंसे किसान शिव कुमार बैठा ने आखिरकार पहले पत्नी और बेटियों को कुएँ में डुबो कर मार डाला। फिर खुद फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। ग्रामीणाें ने अमरूद पेड़ पर फंदे से झूलती शिव कुमार की लाश देखी। सरकार खामोश…

झारखंड में इन दिनों किसान के कर्ज़ों और ख़ुदकुशियों के कई उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। लेकिन कोई ठोस उपाय के जगह सुनने को यह मिलता है कि किसान ख़ुद ही मौत का ज़िम्मेदार है। शादियों में दिखावे के लिए कर्ज़े लेता है और बाद में उसे नहीं चुका पाने के कारण ऐसी घटनाएं होती है। जबकि यह पूरी तस्वीर नहीं है। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन के 2005 के आँकड़े के अनुसार किसानों की ओर से लिये गये कर्ज़े का 65 फ़ीसदी हिस्सा खेती में ही खर्च होता है, जबकि घरेलू खर्च (इलाज, शादी, शिक्षा) के लिए लगभग 25 फ़ीसदी और बाकी का 10 फ़ीसदी अन्य खर्चों में इस्तेमाल होता है। इन आँकड़ों से यह साफ हों जाता है कि केवल विवाह के खर्चे ही ख़ुदकुशियों के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। 

अक्सर ही कृषि संकट की जड़ें हरित क्रांति के मॉडल, किसी सरकार की कुछ नीतियों या फिर अधिक लागत पर किसानों को मिलने वाले कम दाम आदि होती हैं। इस तरह हम देख सकते हैं कि ग़रीब किसानों और खेत मज़दूरों की आत्महत्याओं की जड़ें इस व्यवस्था में ही हैं। जो पशुओं की तरह उन्हें अपने तरीके से भागने के लिए मजबूर करती है और जो इस दौड़ में टिक नहीं पाता उसे मार दिया जाता है। किसानों की आत्महत्याओं और कर्ज़े की समस्या के प्रति इस सरकारों का व्यवहार बेरुखी वाला रहा है। राज्य की सरकार ने ख़ुदकुशी करते किसानों को बचाने की कोशिश तो दूर एक शब्द मुंह से एक शब्द तक नहीं निकलते। साथ ही सरकार के विभागों व नौकरशाही में फैला भ्रष्टाचार ने तो इन किसानों-मज़दूरों की समस्याओं को और बढ़ा दी है।

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