विश्‍व बालश्रम निषेध दिवस भारत में केवल मजाक! ही तो है

विश्‍व बालश्रम निषेध दिवस केवल एक छलावा 

मुनाफ़े की राह पड़ने वाली तमाम बाधाओं को हटाये जाने की प्रतीक्षा करते पूँजीपतियों को तोहफ़ा में बालश्रम संशोधन विधेयक पिछले कार्यकाल में पेश किया था, जिसे श्रममंत्री ने मंजूरी भी दे दी थी। इस विधेयक के अनुसार 14 साल से कम उम्र के बच्चे किसी संगठित क्षेत्र में तो काम नहीं कर पायेंगे, लेकिन परिवारों के छोटे घरेलू वर्कशॉपों में अपने परिवार का “हाथ बटाने” के नाम पर बाल मज़दूरी की छूट होगी।

यह तो ज़ाहिर है कि संगठित क्षेत्र में औपचारिक तौर पर पहले से ही बहुत कम बच्चे काम करते हैं। सर्वाधिक बालश्रम तो असंगठित क्षेत्र है। आज की नयी उत्पादन-प्रक्रिया में असेम्बली लाइन को इस प्रकार खंड-खंड में तोड़ दिया गया है कि मज़दूरों की बड़ी आबादी अनौपचारिक व असंगठित हो गयी है। इस श्रृंखला में सबसे नीचे घरेलू वर्कशॉप ही आते हैं, जहाँ ज़्यादातर काम ठेके पर देकर पीसरेट से किया जाता है।

श्रम क़ानूनों की यहाँ कोई दख़ल नहीं होती और पूरे परिवार से अधिकतम संभव अधिशेष (सरप्लस) निचोड़ा जाता है। अब ऐसे घरेलू वर्कशॉपों या घरों में पीसरेट पर किये जाने वाले कामों में बच्चों की भागीदारी पर से औपचारिक क़ानूनी बन्दिश को भी हटाकर मोदी सरकार नवउदारवाद के दौर में बच्चों तक की हड्डियाँ निचोड़कर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कूटने की संभावनाओं को निर्बन्ध कर देना चाहती है।

भारत में बालश्रम पर रोक और सर्वशिक्षा के सभी वायदे बस ज़ुबानी जमा ख़र्च बनकर रह गये हैं। यदि मज़दूर को परिवार के भरण-पोषण लायक भी मज़दूरी नहीं मिलेगी तो जीने की ख़ातिर बच्चों को भी मेहनत-मजूरी करनी ही पड़ेगी। यदि ग़रीबों के बच्चे किसी प्रकार पढ़ने भी जाते हैं तो शिक्षा के निजीकरण के दौर में सरकारी स्कूलों की पढ़ाई व्यवहारतः उनके किसी काम नहीं आती।

बहरहाल, जब यह सरकार बच्चों से उनका बचपन छीन कर पूर्णतः निर्बाध बनाने की क़ानूनी प्रक्रिया भी शुरू कर ही दी है तो ऐसे में 12 जून को विश्‍व बालश्रम निषेध दिवस का मनाया जाना केवल एक मज़ाक नहीं तो और क्या है।

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