भीड़ की आड़ में आदिवासियों को निशाना बनाया जा रहा है

भीड़ तंत्र के रूप में समाज में बढ़ती हिंसा का सामाजिक संरचना से क्या रिश्ता है? दार्शनिक-वैचारिक स्तर पर हिंसा रक्तपात का समानार्थी शब्द नहीं है। पुराण कथाओं में भी तपस्या, वैराग्य और हृदय-परिवर्तन के प्रसंग केवल व्यक्तिगत मुक्ति के संदर्भ में ही आते हैं। सामाजिक स्तर पर न्याय-अन्याय के बीच के फैसले निर्णायक हिंसात्मक संघर्षों के अंतर्गत ही होते दिखते हैं।

समस्या तब पैदा होती है, भीड़ की हिंसा भी प्राय: अंध प्रतिक्रिया या सामाजिक परिवेश में व्याप्त निराशा-निरुपायता की विस्फोटक अभिव्यक्ति होती है। भीड़ की हिंसा का सुनियोजित-संगठित इस्तेमाल कई बार अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए फासीवादी या अन्य धुर प्रतिक्रियावादी ताकतें करती हैं।

जो झारखंड के आदिवासी समाज गाय के मांस खाने पर कभी यकीन नहीं रखता था, उस समाज को मोब लिंचिंग के नाम पर मौत के घाट उतारा जाना सवाल तो खड़े करते है। जो आदिवासी समाज चावल के शराब से ऊपर न उठ पाया था, उसे साहू समाज ने व्यापार के लिए महुए के शराब के बीच धकेल दिया। और आज उसी साहू समाज का छत्तीसगढ़िया प्रवासी, मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता पर काबिज हो राजनीतिक रोटियां सेंक रहा है।

बहरहाल, सवाल यह नहीं हैं कि नदी किनारे अपने पारंपरिक कार्य -मरे गाय की चमड़ी उतार रहे प्रकाश लकड़ा को भीड़ तब तक मारती है कि जबतक वह मर नहीं जाता है, बल्कि महत्वपूर्ण सवाल यह है कि घटना क्षेत्र के डुमरी थाना को इसकी सूचना दिए जाने के बावजूद पुलिस घटना स्थल पर नही पहुँचती और उलटे ग्रामीणों से ही आरोपी को थाने पहुँचाने को कहती है

ग्रामीणों की मानें तो मामले का डरावना पहलू यह है कि बीते दिनों में पुलिस न सिर्फ घटना से जुड़े तथ्यों व साक्ष्यों को बदलने का प्रयास कर रही है, बल्कि उन्हें यह तक पता नहीं कि घायलों का इलाज कहां हो रहा है। मसलन, जांच दल का मानना है जिस प्रकार पूरे मामले में प्रशासन का रवैया निराशाजनक दिख रही है, यह कहा जा सकता है कि यह न केवल खाने के अधिकार पर हमला है बल्कि राजनीति साधने के लिए की गयी हत्या से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

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