झारखंड राज्य की लड़ाई के “पुरोधा” हैं गुरूजी

अलग झारखंड राज्य-लड़ाई के काल खंड के अनेक मत होने के बावजूद यह लगभग पचास साल पुरानी मानी जाती है। यह लड़ाई जयपाल सिंह मुंडा के आंदोलन से प्रारंभ होकर, दिशोम गुरु शिबू सोरेन के आंदोलन के माध्यम से मुकाम तक पहुंची है। गुरूजी अपने आंदोलन में अग्रणी साथियों के माध्यम से इस लड़ाई को उस शीर्ष तक ले गए, जहां केंद्र और तत्कालीन बिहार सरकार को झारखंड को अलग राज्य का दर्जा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। यदि कहा जाय कि शिबू सोरेन ने झारखंड अलग राज्य की लड़ाई को न केवल मजबूती से आगे बढाया, बल्कि “फिनिसिंग टच” (मुकाम तक पहुंचाया) भी दी तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

11 जनवरी के दिन शिबू सोरेन (गुरु जी) पचहत्तर वर्ष के होने जा रहे हैं। पचहत्तर वर्ष एक सदी का तीन चौथाई हिस्सा होता है। अपने जीवन के सुनहरें वक्त को झारखंड आंदोलन में न्यौछावर करने वाले इस महान नेता को तब-तब याद किया जाएगा जब-जब झारखंड की चर्चा होगी। झारखंड के स्थापित नेताओं में इनका स्थान सबसे ऊपर है। गुरूजी सही मायने में जननेता हैं और अपने सम्पूर्ण जीवनकाल तक झारखंडी जनमानस को नेतृत्व देते रहेंगे।

11 जनवरी 1944 को जन्मे इस असाधारण प्रतिभा के धनी नेता ने अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में शोषण, अत्याचार एवं सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाईयां लड़ी। फिर सहयोगियों के साथ कदम ताल करते हुए अलग राज्य की लड़ाई को आगे बढ़ाया। इनका जीवन संघर्ष का प्रयाय बन गया जो आज भी बदस्तूर जारी है। संघर्ष शोषण से मुक्ति का है। संघर्ष अत्याचार से मुक्ति का है। संघर्ष झारखंड की अस्मिता एवं पहचान बचाने का है। संघर्ष उस उद्देश्य की प्राप्ति का है जिसके लिए झारखंड राज्य की परिकल्पना की गई थी।

सोनोत संथाल समाज से सामाजिक आंदोलन की शुरुआत करने वाले शिबू सोरेन ने सबसे पहले महाजनी व्यवस्था पर चोट करते हुए सूदखोरों के खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी। ये सूदखोर विशुद्ध रूप से शोषक प्रवृत्ति के हुआ करते थे, जो विभिन्न प्रकार के प्रयोगों से भोले-भाले आदिवासी-मूलवासियों को प्रताड़ित करने का काम किया करते थे। शिबू सोरेन ने संगठित होकर इनके खिलाफ आवाज उठाई और संथाल परगना क्षेत्र में इन शोषकों को नियंत्रित करने का काम किया। यही सामाजिक आंदोलन धीरे-धीरे व्यापक रूप धर अलग राज्य की लड़ाई के लिए राजनैतिक स्वरूप में परिवर्तित हो गया। शिबू सोरेन ने अलग झारखंड राज्य की लड़ाई में अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी। यही वजह थी कि 80 के दशक में झारखंड आंदोलन अपने पूरे चरम पर पहुंच सका और कई उतार-चढ़ाव के बीच वर्ष 2000 में झारखंड राज्य अलग हुआ।

बहरहाल, शिबू सोरेन स्पष्ट मानते हैं कि केवल भौगोलिक स्वरूप में ही झारखंड अलग हुआ है। आज भी जिन उद्देश्यों के लिए अलग झारखंड की परिकल्पना की गई थी उनकी प्राप्ति नहीं हुई है। आज झारखंड एक औपनिवेशिक खंड है। जहां सिर्फ प्रयोग हो रहे हैं। आदिवासी-मूलवासियों के हितों की रक्षा आज तक सुरक्षित नहीं हो पाई है। यह तभी संभव हो सकता है जब झारखंड में झारखंडी विचारधारा की सरकार हो और यह काम निश्चित रुप से केवल झारखंड मुक्ति मोर्चा ही कर सकता है। आदिवासी और मूलवासियों के बीच एकजुटता कायम करके ही इस उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है और यही गुरुजी के जन्मदिन का सबसे बड़ा तोहफा हो सकता है।

पी सी‌ महतो, चक्रधरपुर।

 

 

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